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अध्यात्मविचारणा
प्रतिक्षण उत्पन्न या आविर्भूत होनेवाले क्षणविनश्वर परिणामोंकी सत्यताका आश्रय लेकर किया। इससे विरोधी पक्षोंने बौद्धोंपर क्षणवादिता अथवा निरन्वयनाशवादिताका आरोप लगाया। सांख्यदर्शनसम्मत प्रकृतितत्त्वको स्थिर मानने-मनाने में जितने अंशमें बौद्धदर्शन एकांगी था-भ्रान्त था उतने ही अंशमें बौद्धदर्शनको निरन्वयनाशवादी या केवल क्षणिकवादी कहनेवाले भी एकांगी और भ्रान्त थे। इसका कारण यह है कि जिस तरह परिणामि-नित्यतावादी कालक्रमकी दृष्टिसे सर्वदा विद्यमान तत्त्वको भी प्रतिक्षण परिवर्तनशील मानते थे और किसी भी तरहसे परिवर्तित न हो ऐसा नहीं मानते थे, उसी तरह तथाकथित निरन्वयनाशवादी बौद्ध भी प्रतिक्षण नये नये उत्पन्न विनश्वर भावोंकी एक अभेद्य स्वतःसिद्ध सन्तति मानते थे ।
बौद्धसम्मत क्षणिक भाव सन्ततिच्युत नहीं हैं । और सन्ततिसे मतलब है कालक्रममें भावोंका सातत्य । सन्तति शब्दसे जो अभिप्रेत है वही सांख्य एवं जैनदर्शनको परिणामि-नित्य शब्दमें आये हुए 'नित्य' पदसे अभिप्रेत है। अतएव हम कह सकते हैं कि तत्त्वतः सन्तति नित्यता और परिणामि-नित्यता एक ही है। दोनोंके बीच जो भेद भासित होता है वह खण्डन-मण्डनकी प्रणालिकाद्वारा बिछाये गये विकल्पोंके जालकी वजहसे ही ।
तथागत बुद्धकी विचारशैली मूलसे ही विश्लेषणप्रधान थी। वह बुद्धि एवं प्रज्ञासे विचारणीय वस्तुमात्रका इतना बारीक और गहरा पृथक्करण करते थे कि बहुत बार तो वह तत्त्व देश व कालके अविभाज्य सूक्ष्मतम अंशमें मर्यादित हो जाता था। उनके तार्किक शिष्योंने इस शैलीका बेहद विकास किया। इस वजहसे उनके विचारप्रदेशमें प्रत्येक वस्तु दैशिक एवं कालिक अविभाज्य