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मात्मतत्त्व
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दूसरी बातोंमें बौद्धदर्शन प्राचीन जैन-मान्यतासे चाहे जितना अलग-सा पड़ गया हो, पर प्रारम्भमें वह नित्यत्वके स्वरूपके बारेमें जैनदर्शन के साथ एकमत था। परन्तु क्रमशः इस स्थितिमें परिवर्तन होता गया । जैन और बौद्ध दोनों दर्शन पुरुष कूटस्थताका प्रतिवाद तो करते ही थे, पर वे न्याय-वैशेषिकसम्मत जातिनित्यता अथवा जातिकूटस्थतावादका भी विरोध करने लगे। यह खण्डन मण्डनकी प्रणाली तर्क और मुख्यतः विकल्पावलम्बी थी। तर्क ज्यों ज्यों अधिकाधिक सूक्ष्म बनते गये और विकल्पोंका जाल भी ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर अधिकाधिक फैलता गया त्यों-त्यों यह या वह पक्ष, विरोधीका दृष्टिबिन्दु यथावत् ग्रहण करनेके बदले, येन केन प्रकारेण उसके खण्डनमें ही रस लेने लगा। इससे बहुत बार तो वह प्रतिपक्षीके अभिप्रेत अर्थको एक ओर रखकर विकल्पद्वारा अपने ही कल्पित या माने हुए अर्थका प्रतिवाद करने लगता। इसका एक विनोदपूर्ण एवं रोचक उदाहरण यह है कि सांख्यदर्शन प्रधानतत्त्वको परिणामि नित्य मानता है और इसलिए उसमें एक क्षणके लिए भी परिवर्तित न हो ऐसा स्थिरांश नहीं मानता। वह उस तत्त्वको जो नित्य कहता था वह तो उसकी प्रावाहिकताके कारण, क्योंकि परिवर्तित होनेपर भी वह तत्त्व प्रवाहरूपसे तो सर्वदा रहता ही है। परन्तु विश्लेषणप्रधान बौद्धदर्शनने न्यायवैशेषिकसम्मत जाति अथवा सामान्यकी कूटस्थताका खण्डन विकल्पोंद्वारा किया तब उसने सांख्यसम्मत प्रकृतिवादकी भी समीक्षा शुरू की और सांख्यको अभिप्रेत नहीं ऐसा प्रकृतिका न्याय-वैशेषिकसम्मत सामान्य जैसा कुछ अर्थ करके उसका भी प्रतिवाद किया और ऐसा सिद्ध किया कि सांख्यसम्मत प्रधानतत्त्व भी युक्तिबाह्य है । बौद्धदर्शनने अपनी कपोलकल्पनासे प्रकृतिकी जो स्थिरता मान ली थी उसका प्रतिवाद प्रकृतिके