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अध्यात्मविचारणा यह देखते हुए इस बारे में तनिक भी शंकाके लिए अवकाश नहीं रहता कि बौद्धदर्शनका 'नाम' तत्त्वविषयक सिद्धान्त वस्तुतः सांख्यके प्रकृतिजन्य बुद्धितत्त्व अथवा जैनके स्वतःसिद्ध जीवतत्त्वसम्बन्धी मान्यतामेंसे ही फलित हुआ है ।
ध्रुव, नित्य, शाश्वत और स्थिर आदि शब्द जैसे प्राचीन हैं वैसे समानार्थक भी हैं। जो कालक्रममें टिकाऊ हो, सदा सत् या विद्यमान हो उसीका ध्रुव, नित्य आदि शब्दोंसे व्यवहार होता था। विचारकी इस भूमिकामें ध्रुव, सदा सत् या शाश्वत तत्त्वमें किसी तरहका परिवर्तन होता ही नहीं और वह जिस तरह कालक्रममें सदा सत् है उसी तरह भीतर और बाहरसे अपरिवतिष्णु भी है-ऐसी मान्यताको स्थान नहीं मिला था। पर हम पहले देख चुके हैं कि सांख्यदर्शनने प्रकृतिसे भिन्न पुरुषतत्त्व मानकर उसे कूटस्थ भी माना तब नित्यत्व, सदासत्त्व या शाश्वतत्वके साथ भीतर और बाहरसे अपरिवर्तिष्णुता भी जुड़ी और ऐसा माना जाने लगा कि जो कूटस्थ है वह कालक्रममें सदा विद्यमान रहता है। इतना ही नहीं, पर वह अपने आपसे या दूसरे किसीके संसर्गसे भी परिवर्तित नहीं हो सकता। पूर्वकालमें प्रचलित नित्यत्वकी कल्पनामें कूटस्थताका समावेश होनेपर अब नित्यत्वकी कल्पना दो भागोंमें विभक्त हुई-एक कूटस्थ नित्य और दूसरी इसकी विरोधी परिणामि-नित्य । सांख्यदर्शनमें पहली कल्पना पुरुषतक मर्यादित रही और दूसरी कल्पना पहले ही से जैसे प्रधान या प्रकृति-तत्त्वको लागू होती थी वैसे ही चालू रही। जैनदर्शनने कूटस्थनित्यत्ववादका विरोध किया। वह जड़ एवं चेतन सभी तत्त्वोंमें परिणामित्वकी कल्पनाका समर्थन करने लगा । इस प्रकार दार्शनिक विचारप्रदेशमें नित्य शब्दके अर्थके बारेमें मुख्य रूपसे परस्पर विरोधी दो पक्ष अस्तित्वमें आये ।