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प्रारमतत्त्व
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इस बारे में हम विचार करें उससे पहले बौद्धदर्शनसम्मत नामतत्त्व या चित्ततत्त्वकी मान्यता किस प्राचीन मान्यतामेंसे ली गई है अथवा किससे अलग पड़ती है-इसपर हम संक्षेपमें विचार कर लें।
इतिहासज्ञ जानते हैं कि बुद्ध स्वयं श्रमणमार्गी थे और उनके आचार-विचारका उद्गम तथा विकास प्रायः प्राचीन सांख्य तथा जैनदर्शनकी भूमिकापर हुआ है। प्राचीन सांख्य प्रकृतिजन्य सत्त्वप्रधान बुद्धितत्त्वको ही ज्ञान-अज्ञान, धर्म-अधर्म आदि भावोंका आधार मानकर उसीको पुनर्जन्मवान् और अन्त में मोक्षगामी मानते थे। पहले कहा जा चुका है कि सांख्यकी इस विचारभूमिकाके समय ही जैनदर्शनके जीवतत्त्वने स्वतःसिद्ध स्वतंत्र तत्त्वके तौरपर स्थान लिया। यद्यपि सांख्यदर्शनने आगे जाकर इस प्राचीन सत्त्व या जीवसे भिन्न कूटस्थ पुरुषोंकी कल्पना की, पर इस कल्पनामें जैनदर्शन सम्मत न हुआ और अपनी पूर्वभूमिकासे ही वह चिपका रहा। इसपरसे स्पष्ट होता है कि कूटस्थ-पुरुषवादी सांख्यभूमिकाके स्थिर होनेपर भी उस समय उसमें प्राचीन सत्त्व या बुद्धितत्त्वकी मान्यता चालू ही थी; यद्यपि अब उस तत्त्वने चेतनका स्थान छोड़कर उसके उपकारक सूक्ष्म आतिवाहिक लिंगशरीरका स्थान ले लिया था, जब कि जैनदर्शनमें उस तत्त्वने चेतन या आत्मतत्त्वका ही स्थान टिकाये रखा। बौद्धदर्शन कूटस्थवाद स्वीकार नहीं करता, अतः सांख्यदर्शनसम्मत कूटस्थपुरुषवादकी भूमिकाको तो वह मान सके ऐसा था ही नहीं। अतएव उसने जैनदर्शनसम्मत स्वतंत्र अथवा स्वतःसिद्ध जीवतत्त्वकी भूमिका मान्य रखकर 'नाम' शब्दसे मुख्यतः स्वतःसिद्ध जीव, सत्त्व आदि शब्दोंसे उल्लिखित एवं व्यवहृत तत्त्वको अपने दर्शनमें स्थान दिया । बौद्धदर्शनसम्मत 'नाम' तत्त्व उत्पाद, व्यय एवं स्थितिशील होनेसे मूलमें परिणामी है और अविभु भी है।