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________________ ४२ अध्यात्मविचारणा तत्त्व है । अतएव ऐसा कहना चाहिये कि बौद्धदर्शनने 'नाम' शब्दसे आत्मतत्त्वस्थानीय चेतनतत्त्वका स्वीकार किया है । इसपरसे फलित यही होता है कि बौद्धदर्शनको चेतनवादी ही कहना चाहिये | अब हमें यह देखना है कि बौद्धदर्शनने 'नाम' शब्दद्वारा जो सजीव या सचेतन अमूर्त तत्त्व स्वीकार किया है उसका स्वरूप वह कैसा मानता है ? बौद्धपिटकोंके प्राचीन भाग तथा अभिधर्मकी मान्यताको देखने से ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्धदर्शन नाम अथवा चित्त-तत्त्वको कूटस्थ तो नहीं मानता, पर साथ ही मात्र क्षरणजीवी भी नहीं मानता ।" वह नाम अथवा चित्त-तत्त्वको उत्पाद, नाश एवं स्थिति - इस प्रकार त्रिरूप मानता है । बुद्ध न तो शाश्वतवादी हैं और न उच्छेदवादी; अतः वे जिस प्रकार तत्त्वको कूटस्थ नहीं मानते थे उसी प्रकार निर्मूल विनश्वर भी नहीं मानते थे । उनका विचार एवं आचारमार्ग मध्यम है | वे विभज्यवादी हैं; अतः उन्होंने उत्पाद - विनाश और स्थिति स्वीकार कर नाम या चित्त-तत्त्व में मध्यम मार्ग घटाया हो तो यह स्वाभाविक है । इस तरह यदि हम देखें तो बौद्धसम्मत नामतत्त्व जैनसम्मत जीवतत्त्व जैसा ही परिणामी सिद्ध होता है और सांख्यसम्मत प्रकृति तत्त्वकी भाँति ही वह भी परिणामिनित्य है । ऐसी स्पष्ट प्ररूपणा एवं मान्यता होनेपर भी बौद्धदर्शनको क्षणिकवादी क्यों कहा जाता है ? - यह एक विचारणीय प्रश्न है । १ तिणीमानि भिक्खवे संखतस्स संखतलक्खणानि उप्पादो पञ्ञायति वयो पञ्ञयति ठितस्स श्रञ्ञथत्तं पञ्ञायति । - अंगुत्तरनिकाय, तिकनिपात उप्पादठितिभंगवसेन खणत्तयं एकचित्तक्खणं नाम । - श्रभिधम्मट्ठसंगहो ४.८ ...
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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