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________________ प्रारमतत्त्व ४१ आदि । बौद्धपरम्परामें 'नाम-रूप' यह शब्दयुगल बहुत प्रचलित है। साधारण लोग तथा कुछ दार्शनिक भी 'नाम-रूप' में आये हुए 'नाम' का जो अर्थ करते हैं' वह बौद्धपरम्पराको अभिप्रेत नहीं है। बौद्धपरम्पराके अनुसार नाम अर्थात् रूपका प्रतिद्वन्द्वी तत्त्व । बौद्धपरम्परा 'रूप' का अर्थ केवल नेत्रग्राह्य श्वेत आदि रूप न करके उसका विशाल अर्थ करती है। उसके मतके अनुसार सूक्ष्म-स्थूल सभी भौतिक पदार्थ 'रूप' शब्दके अर्थमें समाविष्ट होते हैं। अतः उसके मतसे 'नाम' के अर्थमें अभौतिक वस्तुका ही समावेश होता है। इसीलिए तो 'नाम' को अरूपी स्कन्ध कहा है और उसके अर्थविस्तारमें वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन चार स्कन्धोंका समावेश किया गया है । बौद्धपरम्पराने 'नाम' पदसे जिस अर्थकी विवक्षा की है वही अर्थ उसे आत्मतत्त्वके रूपसे अभिप्रेत है और वही वस्तु 'चित्त' या 'मन' शब्दसे भी व्यवहृत होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बौद्धपरम्पराने नामका ( नाम-रूप युगलमें ) जो अथ मान्य रखा है वह प्राचीन उपनिषदोंमें प्रयुक्त 'नाम-रूप' में आये हुए 'नाम' पदके अर्थकी अपेक्षा कुछ भिन्न है। जड़ या बाह्य जगत्से भिन्न सजीव अन्तस्तत्त्व ही कभी 'नाम' शब्दसे व्यवहृत होता था। जिस प्रकार जैन-दर्शनमें जीव-अजीव या चेतन-जड़ और सांख्य आदि दर्शनों में प्रकृति-पुरुष आदि परस्पर विरुद्धगुण-धर्मवाले दो तत्त्व माने गये हैं, उसी प्रकार बौद्धदर्शन भी नाम और रूप शब्दसे वैसे ही दो परस्पर विरोधी तत्त्वोंको स्वीकार करता है। इनमें जो नामतत्त्व है वही पुनर्जन्म धारण करनेवाला और विकासक्रमके अनुसार निर्वाण प्राप्त करनेवाला १ उदाहरणार्थ देखो ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्यपरकी रत्नप्रभा टीका २. २. १६।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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