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________________ ४० अध्यात्मविचारणा पुनर्जन्म, कर्मतत्त्व एवं बन्ध-मोक्षके ऊपर ही हुआ है। कुशलअकुशल कर्म के अनुसार कोई भी व्यक्ति देहविलयके पश्चात् नया जन्म धारण करता है, और शील, समाधि एवं प्रज्ञाकी साधना द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है-यह बौद्धदर्शनका पहलेसे आज. तक निर्विवाद सिद्धान्त रहा है और यह सिद्धान्त आत्मतत्त्वके स्वीकारपर ही अवलम्बित है। ऐसी दशामें बौद्धदर्शनको, जैसा आम तौरपर समझा जाता है, अनात्मवादी दर्शन नहीं कह सकते । हाँ, इतना जरूर है कि स्वयं बुद्ध और उनके शिष्य आत्मतत्त्व माननेपर भी उसके लिए आत्मा शब्दका प्रयोग नहीं करते थे और कूटस्थवादियोंकी भाँति वे उस तत्त्वको शाश्वत या कूटस्थ भी नहीं मानते थे । जो आत्मतत्त्वको कूटस्थ मानते थे और जो इसी अर्थमें 'आत्मा' शब्दका व्यवहार मुख्य रूपसे करते थे उन्होंने बौद्धदर्शनकी भिन्न वृत्ति और रुख देखकर उसे अपनी दृष्टिसे अनात्मवादी कहा ओर आत्मवादकी जमी हुई प्रतिष्ठाका उपयोग करके उसे नीचा दिखानेका प्रयत्न किया-वस्तुतः इसमें इतना ही सत्य है । अपने जैसी मान्यता न रखनेवालेको नास्तिक कहनेका जो अविचारी रिवाज-सा चल पड़ा है उसके जैसी यह बात है । अन्यथा बौद्धदर्शन भी इतर पुनर्जन्मवादी दर्शनोंकी भाँति आत्मवादी ही है। फिर भले ही वह 'आत्मा' शब्दका प्रयोग सकारण न करे अथवा उसका इनकार करे। बौद्धदर्शनमें आत्मतत्त्वके लिए भिन्न-भिन्न स्थानोंपर और भिन्न-भिन्न समयमें गौण-मुख्य भावसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं; जैसा कि-'पुग्गल, पुरिस, सत्त, जीव, चित्त, मन, विज्ञान १ सब्बे सत्ता अवेरा "सम्बे पाणा' 'सब्बे भूता'"सब्बे पुग्गला"। -पटिसंभिदा २. १३० और विसुद्धिमग्ग ६.६
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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