________________
श्रात्मतत्त्व
३६
भाव अथवा गुणोंकी उत्पत्ति और नाश आत्मामें माना। इससे सहज ही ऐसी शंका उठ सकती है कि यदि ऐसा है तो फिर वैसे आत्माको कूटस्थ कैसे कह सकते हैं ? इन भावोंके उत्पाद-विनाशके साथ ही इनके आधारभूत आत्माका स्वरूप भी कुछ-न-कुछ बदलेगा ही । यदि वह बदले तो आत्माके कूटस्थत्वका भंग होता है और वह परिणामी हो जाता है। इस प्रकारकी किसी भी शंकाके लिए स्थान न रहे इस दृष्टिसे उन्होंने आत्मा तथा उसके भाव या गुणोंके बीच भेदसम्बन्ध माना। आत्मामें वे भाव हैं. तो सही, परन्तु वे उससे सर्वथा भिन्न हैं। अतः गुणोंका उत्पादविनाश होनेपर भी आत्माका उसके साथ कोई लगाव नहीं है। वह तो कूटस्थका कूटस्थ ही रहता है। इस तरह अबतक सामान्यतः गुण-गुणी एवं धर्म-धर्मीके बीच जो एक प्रकारका अभेद सम्बन्ध माना जाता था उसके स्थानमें वैशेषिक चिन्तकोंने भेदसम्बन्धकी कल्पना करके अपने पक्षपर आनेवाले दोषोंका निवारण किया। इस प्रकार उनका वाद भी दार्शनिक चिन्तनक्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और रूढ़ भी हुआ। वस्तुतः प्रधानाद्वैतवादमेंसे . कालक्रमसे फलित होनेवाले उपर्युक्त दो वादोंके अर्थात् जैन एवं सांख्यके समन्वयके रूपसे ही यह तीसरा वैशेषिकसम्मत वाद अस्तित्व में आया है।
अब आत्मतत्त्व के बारेमें बौद्धदर्शनका क्या मत है यह भी हम देखें। सामान्यतया साधारण जनता और बहुत बार तो विद्वान् तक ऐसा समझते और कहते हैं कि बुद्ध अनात्मवादी थे
और बौद्धदर्शन आत्मतत्त्वको नहीं मानता। ऐसी समझ और ऐसा कथन एक तरहसे भ्रान्त है । बुद्ध स्वयं और उनके समकालीन या उत्तरकालीन शिष्योंमेंसे कोई भी पुनर्जन्मका इनकार नहीं करता; बल्कि सच तो यह है कि समग्र बौद्धपरम्पराका निर्माण