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अध्यात्मविचारणा
यदि बन्ध एवं मोक्षकी दृष्टिसे सर्वथा अयोग्य समझा जाय ऐसा तत्त्व मान्य रखोगे तो वैसे अनुपयोगी तत्त्वोंके स्वीकारका कोई अन्त ही नहीं आयगा । यद्यपि कूटस्थ पुरुषवाद पुरुषमें आरोपित बन्ध-मोक्ष मानकर जैसे-तैसे मन मना लेता था, पर वह कुछ वास्तविक समाधान नहीं था। तटस्थ तत्त्वज्ञ ऐसा तो समझते थे कि कूटस्थ पुरुषकी कल्पनाके साथ वास्तविक बन्ध-मोक्ष न घटा सकनेकी क्षति संकलित है ही। इसी प्रकार ऐसे तत्त्वज्ञोंको परिणामी तथा संकोच-विस्तारशील जीव या चेतनतत्त्व मानने में भौतिकताका दोष भी दिखाई पड़ता था। इन सब कारणोंसे ऐसे तत्त्वज्ञोंने जीव, आत्मा या चेतनके स्वरूपकी एक नई ही कल्पना की । इस कल्पनाका मूल और मुख्य उद्देश्य कूटस्थ एवं परिणामी चेतनवादमें आनेवाले दोषोंसे मुक्ति प्राप्त करना यह था। अतः उन्होंने इन दोनों वादोंद्वारा सम्मत भिन्न-भिन्न स्वरूपोंका मिश्रण करके तीसरे एक नये आत्मवादकी ही सृष्टि तत्त्वज्ञानमें की, जो इस प्रकार है___ यह सही है कि आत्मा स्वतःसिद्ध तथा देहभेदसे भिन्न है,
और यह भी सच है कि वह अपरिणामी व कूटस्थ होने के अतिरिक्त विभु भी है, फिर भी उसमें कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व भी वास्तविक है और इसीलिए उसमें बन्ध और मोक्ष भी वास्तविक तौरपर ही घटमान हैं । बन्ध-मोक्ष वास्तविक होनेकी वजहसे कूटस्थ एवं विभु आत्मामें भी ज्ञान-सुख-दुःख-पुण्य-पाप आदि भाव वस्तुतः उत्पन्न एवं विनष्ट होते हैं। यह नया आत्मवाद ही वैशेषिक दर्शनकी विशेषता है। कालान्तरमें वैशेषिक दर्शनके समानतंत्र माने जानेवाले न्यायदर्शन तथा प्राचीन मीमांसादर्शनको भी यही आत्मवाद मान्य हुआ है।
वैशेषिक तत्त्वचिन्तकोंने ज्ञान-सुख-दुःख-पुण्य-पाप आदि