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________________ प्रात्मतत्त्व दोनों पिता-पुत्रके जैसे वादोंके संघर्षके परिणामस्वरूप प्रधानाद्वैतवादने प्रधान-पुरुषरूप तत्त्वद्वैतवादको जन्म दिया। इस तरह प्रधानाद्वैतवादकी सांख्यविचारभूमिकामेंसे कालान्तरमें दो भाई जैसे दो वाद अस्तित्व में आये। ये दोनों वाद यद्यपि स्वतःसिद्ध तत्त्वद्वैतको ही मानते हैं, फिर भी इन दोनोंके बीच खासा अन्तर भी है । पहले वादमें जीवतत्त्व भी अजीवकी ही भाँति परिणामी माना गया है और देह-परिमित होनेसे वह संकोच-विस्तारशील भी है, ऐसी कल्पना की गई है । परन्तु जीव तो अभौतिक पदार्थ है; उसमें संकोच-विस्तारशीलता मानना यह तो वस्तुतः उसमें भौतिकता मानने के बराबर है। अतएव इस दोषसे बचने के लिए दूसरे वादने पुरुष या चेतनमें न तो माना परिणामित्व और न माना संकोच-विस्तारशीलत्व । उसने पुरुषको कूटस्थ कहकर अपरिणामी और विभु कहकर संकोच-विस्ताररहित माना। इस 'प्रकार उसने अर्थात् सांख्यके प्रकृति-पुरुषद्वैतवादने प्रथम पक्ष अर्थात् जैनपरम्पराद्वारा सम्मत जीवतत्त्वके ऊपर आनेवाले भौतिकताके आरोपसे छुटकारा पाया। अपरिणामित्व एवं कूटस्थत्वकी कल्पनाने चेतन पुरुषमें एक ओर तो कतृत्व तथा बन्ध-मोक्षको वास्तविकताका इनकार कराया तो दूसरी ओर बुद्धिसत्त्वमें पहले ही से माने जानेवाले ज्ञान-सुख-दुःख-पुण्य-पाप आदि जीवगत भावोंको पुरुषमें स्थान लेनेसे रोका। यहाँपर यह न भूलना चाहिये कि इस भूमिकामें दोनों वादोंको मोक्ष तो मान्य था ही। इसीलिए परिणामि-जीवतत्त्ववादीने अपरिणामी एवं कूटस्थ चैतन्यवादीसे कहा कि तुमने भौतिकताके दोषसे बचने के लिए कूटस्थत्व तो माना, पर बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था कैसे . घटाओगे ? क्योंकि तुम्हारा पुरुष तो सर्वथा कर्तृत्वशून्य और • इसीलिए भोक्तृत्वरहित होनेसे न तो वह बद्ध है और न मुक्त ।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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