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श्रध्यात्मविचारणा
तनिक भी आवश्यकता नहीं है । ये दोनों तत्त्व मूलमें से ही भिन्न एवं स्वतःसिद्ध अनादि हैं और दोनोंके बीचको भेदरेखा वास्तविक है, और इसीलिए न तो जीव कभी अजीवभाव प्राप्त करता है और न अजीव कभी जीवभाव प्राप्त करता है | चेतन चेतन ही है और अचेतन अचेतन ही । ऐसा होने से चेतन या जीवको मोक्ष - पुरुषार्थ के लिए अवकाश रहता है। प्रकृतितत्त्वमें से जीवअजीव सृष्टिका सर्जन व्यापार शुरू होते ही जीव या सत्त्वमें जो सुख-दुःखसंवेदन आदि भावोंकी उपपत्ति की गई थी और उस सत्त्वका जो स्वरूप उस समय सिद्ध हुआ था वह सब जब स्वतःसिद्ध जीव अजीवतत्त्ववाद अस्तित्व में आया तब स्वतः सिद्ध अनादि जीवतत्त्व मानकर उसमें घटाया गया । यही वजह है कि हम प्रकृतिजन्य सत्त्व या जीव और स्वतः सिद्ध जीव में एक तरहका पूर्ण साम्य देखते हैं । इतनी चर्चा यह जानने के लिए पर्याप्त होगी कि पूर्वोक्त दोनों वादोंमेंसे कौनसा वाद दूसरे मेंसे फलित हुआ है और वह किस उपपत्तिके आधारपर |
आत्मवादी चिन्तनमें ये दोनों वाद अब अपने-अपने ढंग से लोक-मानसका निर्माण कर रहे थे और अपने-अपने पक्षकी स्थापना तथा इतर पक्षोंकी त्रुटियाँ भी दिखा रहे थे । इस प्रक्रियाने चाहे जितना समय लिया हो, पर इन दोनों वादोंके पारस्परिक आक्षेप-प्रत्याक्षेपके परिणामस्वरूप एक तीसरा वाद अस्तित्वमें आया । वह वाद कौनसा है और किस तरह अस्तित्व में आया, यह अब हम देखें।
हम ऊपर देख चुके हैं कि स्वतःसिद्ध जीव अजीव तत्त्वद्वैतवाद, जो जैनपरम्परामें सुरक्षित है, प्रधानाद्वैतवादकी मूल सांख्य- भूमिकाका प्रथम विकास है। मूल प्रधानाद्वैतवाद और उसकी प्रथम सन्तति स्वतः सिद्ध जीव अजीव तत्त्वद्वैतवाद - इन