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श्रात्मतत्त्व
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(१) यदि मूलमें त्रिगुणात्मक प्रकृति ही एकमात्र तत्त्व हो और उसके गुणोंके तारतम्यके कारण ही जड़-चेतन या अजीवजीव जैसे सर्जन होते हों तो वस्तुतः उन सर्जनोंमें कोई सच्ची भेदरेखा हो ही नहीं सकती, क्योंकि सत्त्वगुणके प्रकर्षके कारण जो सर्जन जीव कहलाता है वही सर्जन किसी समय इतर गुणोंका प्रकर्ष होनेपर अजीवभाव क्यों न प्राप्त करे ? अर्थात् ज्ञान, सुख, दुःख जैसे भावोंको त्यागकर जड़ता क्यों न प्राप्त करे ? इसी तरह जो सर्जन जड़ या अजीव कहलाते हैं वे तन्मात्रा या स्थूल भूत आदि तत्त्व भी सत्त्वगुणके प्रकर्षसे किसी समय ज्ञान, सुख, दुःख आदि भावोंका अनुभव क्यों न करें अर्थात् वे जीवनव्यापार क्यों न धारण करें ?
(२) सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणोंकी साम्यावस्थाको ही प्रकृति कहते हैं। इसमें क्षोभ होनेपर जीव-अजीवसृष्टिका प्रसव होता है। जिस तरह वह क्षोभ किसी समय अकारण ही-स्वतः हुआ है उसी तरह क्षोभमूलक गुणवैषम्यमेंसे आविर्भूत जीव-अजीव-सृष्टि में भी अकारण ही-स्वतः गुणसाम्य भी किसी समय प्रगट हो सकता है; और जब ऐसा होगा तब सृष्टिका अर्थात् पुनर्जन्मका प्रलय भी स्वयमेव होगा। ऐसी स्थितिमें मोक्षके लिए किये जानेवाले पुरुषार्थकी जरा भी आवश्यकता नहीं रहती। तब फिर इस पक्षमें मोक्षके विचारका महत्त्व क्या रहा?
ऐसा प्रतीत होता है कि इन और इनके जैसे दूसरे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए ही प्रकृतिजन्य जीव-अजीव तत्त्ववादमेंसे स्वतःसिद्ध जीव-अजीव तत्त्ववाद अस्तित्वमें आया होगा। जब यह वाद अस्तित्वमें आया तब इसने सिर्फ इतना ही मान लिया कि जीवअजीवके उपादानके तौरपर प्रधान या प्रकृति नामक तत्त्व माननेकी