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अध्यात्मविचारणा और किसी एकमेंसे दूसरेका अस्तित्व फलित होता हो तो यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि मूल वाद कौनसा और उसमेंसे दूसरा जो फलित हुआ वह कौनसा ? इस प्रश्नका उत्तर दिये बिना आगे चर्चा करना अप्रासंगिक ही होगा। आगे जाकर आत्मवादके विकासकी जो कथा कहनी है उसका आधार भी उक्त प्रश्नका उत्तर ही है । अतएव इस प्रश्नका उत्तर तनिक विस्तारसे देना ही उपयुक्त होगा।
उक्त दोनों वादोंमें जीवतत्त्वका स्वरूपसाम्य एवं अभिधानसाम्य देखते हुए ऐसा तो माना ही नहीं जा सकता कि ये दोनों वाद प्रारम्भ ही से स्वतंत्ररूपसे अस्तित्व में आये हों। इसलिए सोचनेका इतना ही बाक़ी रहता है कि कौनसा वाद दूसरेमेंसे फलित हुआ है ? यहाँपर दो विकल्प हो सकते हैं-(१) प्रकृतिजन्य जीववादमेंसे स्वतःसिद्ध जीववाद, या (२) स्वतःसिद्ध जीववादमेंसे प्रकृतिजन्य जीववाद ? विचार करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम विकल्प ही स्वीकार्य हो सकता है । यदि मूलमें स्वतःसिद्ध जीव और स्वतःसिद्ध अजीव इन दोनों तत्त्वोंको माननेवाला तत्त्वद्वैतवाद होता तो उस वादसे पुनर्जन्म, मोक्ष आदिकी सम्पूर्ण उपपत्ति हो सकती थी; तो फिर दोनों तत्त्वोंके उपादानरूपसे प्रकृति या प्रधान तत्त्व माननेकी तनिक भी आवश्यकता नहीं रहती, जिससे कि वैसा प्रकृतितत्त्व मानकर उसमेंसे जीव. अजीवरूप दो सर्जन माननेकी कल्पनातक जाना पड़े। इसके विपरीत, यदि मूलमें ही प्रकृतिजन्य जीव-अजीव सर्जनोंकी मान्यता थी ऐसा मानें तो चिन्तनकी अमुक कक्षातक आनेपर ऐसे प्रश्न उठते हैं जिनका समाधान स्वतःसिद्ध जीव और अजीवतत्त्वकी मान्यता फलित किये बिना किसी तरह शक्य ही नहीं है। संक्षेपमें वे प्रश्न इस प्रकार हैं