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ऊपर की चर्चा परसे मूलमें तत्त्वाद्वैत माननेवाली सांख्यविचारसरणीका, मोक्षपुरुषार्थ की दृष्टिसे उसके विकासक्रमका विचार किया जाय तो तीन भूमिकाएँ फलित होती हैं। इनमें से प्रथम भूमिका चरकके शारीरस्थानके कतिधापुरुषीय प्रकरण में उल्लिखित है । यही भूमिका ब्रह्मसूत्रके प्राचीन व्याख्याकारों ने सूत्रोंमेंसे फलित की हैं और इसी भूमिकाका शंकराचार्य ने पूर्वपक्षके रूप में अपने प्रायः समग्र भाष्य में निर्देश किया है । दूसरी भूमिका प्रधान और चेतन दोनों को सत् माननेवाली है । इसका प्रतिपादन ईश्वरकृष्णकी कारिका तथा योगसूत्र आदिमें है । तीसरी भूमिका केवलाद्वैत के नामसे प्रसिद्ध है । इसके प्रमुख पुरस्कर्ता आमतौरपर शंकराचार्य कहे जाते हैं । उन्होंने ब्रह्मसूत्रोंमेंसे उपनिषदोंके आधारपर यह भूमिका फलित की है ।
आत्मतत्व
यहाँतककी चर्चा मुख्यतः अनात्मवादके विरोधी जो प्राचीन दो आत्मवाद थे उनके आधारपर हुई । प्रकृतिजन्य जीववाद और स्वतःसिद्ध जीववादरूपसे इन दो वादोंका कुछ स्वरूप तथा इन दोनोंके पारस्परिक संघर्ष के परिणामस्वरूप उनमें जो परिवर्तन या विकास हुआ उसका संक्षिप्त चित्र भी ऊपर अंकित किया गया है। इस चित्रका अध्ययन करनेवाले तार्किक जिज्ञासुके मन में ऐसा प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि यदि प्रकृतिजन्य जीव एवं स्वतः सिद्ध जीव इन दोनोंके परिणामित्व, देहपरिमितत्व, सुख-दुःख-ज्ञान-अज्ञान - पुण्य-पापयुक्तत्व जैसे स्वरूप समान ही हैं और विशेष में सत्त्व, जीव, आत्मा जैसे नाम भी समान ही हैं, तो ये दोनों वाद क्या परस्पर एक दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र हैं अथवा किसी एक वाद में से, विचारकी अमुक भूमिका सिद्ध होनेपर, दूसरा वाद अस्तित्व में आया है ? यदि दोनों प्रारम्भ ही से सर्वथा स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में न आये हों
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