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श्रात्मतत्त्व
___ यह सही है कि विज्ञानाद्वैतमें विज्ञानबाह्य रूप जैसा कोई वास्तविक तत्त्व नहीं है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि विज्ञानसन्तति एक ही हो। वैसी सन्ततियाँ अनन्त हैं और वे क्षणभेदसे उत्पन्न विनष्ट होती रहती हैं । ब्रह्माद्वैत कूटस्थ एवं व्यापक एक ही ब्रह्मतत्त्वको मानकर भेदमात्रको मायिक अर्थात् अविद्यामूलक मानता है जब कि विज्ञानाद्वैत विज्ञानकी सन्ततियोंके अथवा क्षणभेदसे उत्पन्न-विनष्ट होनेवाले विज्ञानोंके भेदोंको मायिक नहीं मानता। वह केवल विज्ञानसे भिन्न माने जानेवाले रूप या मूर्त तत्त्वकी बाह्यताको सांवृत-मिथ्या-आविद्यक मानता है।
तत्त्वज्ञानमें मुख्यतः जीव, जगत् एवं ईश्वर-इन तीन तत्त्वोंके आधारपर विचार किया जाता है । इस विचारमें मुख्यतः कभी अभेददृष्टि तो कभी भेददृष्टिका अवलम्बन लिया जाता है। इन भेद एवं अभेद-दृष्टियोंमेंसे फलित होनेवाली भेदाभेद, कथंचिद् भेद जैसी अन्य दृष्टियोंको भी तत्त्वज्ञानमें स्थान मिला है। यहाँ तक मिन्न-भिन्न परम्पराओं में पर्यवसित आत्मतत्त्वसम्बन्धी विचारका ऐतिहासिक एवं तात्त्विक दृष्टिसे निरूपण हुआ। अब
आत्मतत्त्वके साथ एक अथवा दूसरे प्रकारसे जिसका अत्यन्त निकटका सम्बन्ध है उस परमात्मतत्त्वके विषयमें विचार करना प्रसंगोपात्त है।