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________________ २८ अध्यात्मविचारण अपेक्षा उसमें वैशिष्ट्य क्या रहा ? और दूसरा यह कि यदि आत्मतत्त्व संसारदशामें वस्तुतः विकृत हुआ हो तो मुक्त होनेके पश्चात् भी वह विकृत क्यों नहीं होगा ? जो तत्त्व मोक्षकी दृष्टिसे स्वभावतः शुद्ध माना गया हो और फिर भी वास्तविक दृष्टिसे विकृत भी माना गया हो, वही तत्त्व मुक्तिदशामें शुद्ध स्वभाव प्रगट करे तो भी उसका परिणामी स्वभाव उसे पुनः विकृत होनेसे कैसे रोक सकता है ? शुद्ध स्वभाव प्रगट होने के बाद किसी समय भी यदि विकृति उत्पन्न हो तो वैसा मोक्ष स्वर्गके जैसा ही हुआ। जैसे स्वर्गसे च्युत होना पड़ता है वैसे ही मोक्षकालीन शुद्ध स्वभावसे भी च्युत होना पड़ेगा। ऐसे किसी विचारपरसे उपर्युक्त द्वैतवादी सांख्यविचारसरणीने अपने मोक्षवादमें आत्माको परिमित न मानकर विभु अर्थात् अपरिमित माना और परिणामी न मानकर अपरिणामी अर्थात् कूटस्थ माना। उसने ऐसा भी माना कि आत्मतत्त्व स्वभावसे शुद्ध ही है। वह अपरिणामी होनेसे संसारदशामें भी विकृत नहीं होता। वह संसार एवं मोक्ष दोनों दशाओं में एक जैसा सहजशुद्ध ही रहता है। उसपर पुण्य-पापका किसी भी तरहका असर नहीं पड़ता। इसीलिए मुक्ति के अनन्तर विकृतिकी सम्भावना ही नहीं रहती। इन मोक्षवादी सांख्यविचारकोंने ऐसा मान लिया था कि संसार और मोक्ष तो प्रधान अथवा अव्यक्तका होता है, क्योंकि परिणामी होनेसे उसीमें ऐसी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ सम्भव हैं; आत्मा न तो बद्ध है और न मुक्त । प्रकृतिका कार्यप्रसव बन्ध है और उसीका प्रतिप्रसव (प्रलय ) मोक्ष है। प्रकृतिके ही ये १. तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।। -सांख्यकारिका ६२
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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