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________________ श्रात्मतत्त्व २६ दोनों बन्ध एवं मोक्ष-उसके समीपमें सदा विद्यमान आत्मतत्त्वमें आरोपित होते हैं। परिणामितत्त्वद्वैतवादी और परिणामी एवं कूटस्थ तत्त्वद्वैतवादी इन दोनों विचारसरणियोंका आत्मस्वरूपविषयक उपयुक्त मन्तव्य, जो हजारों वर्ष पहले निमित हुआ था, वह आज भी दार्शनिक चर्चाओं में जीवित है। __ मूलमें तो तत्त्वाद्वैतस्पर्शी साख्यविचारसरणीमें परिणामवाद ही था। उसके पश्चात् द्वैतस्पर्शी दूसरी भूमिकामें कूटस्थवादका भी स्वीकार कैसे हुआ, यह हम देख चुके । आत्मवादके बारेमें दूसरे भी ऐसे महत्त्वके और विचारणीय मुद्दे हैं, जिनपर आगेका दार्शनिक विकास हुआ है। इनमें पहला मुद्दा आत्मबहुत्व और आत्मैकत्वका है। चालू जीवनमें सबको होनेवाले सुख-दुःखके भिन्न-भिन्न अनुभवोंके आधारपर देहभेदसे आत्मतत्त्व यदि भिन्न-भिन्न कल्पित हो तो वैसी कल्पना व्यावहारिक अनुभवसे बाधित नहीं है। इसी कारण प्रारम्भसे ही तत्त्वद्वैतस्पर्शी परिणामवादी परम्पराने जीवबहुत्व माना है । इसी प्रकार तत्त्वाद्वैतस्पर्शी सांख्यने भी अपनी प्रथम भूमिकामें मौलिक अव्यक्त या. प्रकृति तत्त्वमेंसे आविर्भूत और देहभेदसे भिन्न-भिन्न सत्त्व या जीव माने थे; अर्थात् मूलमें तत्त्वाद्वैतस्पर्शी पहली भूमिका भी जीवबहुत्ववादी थी । जब उस विचारसरणीने द्वैतवादकी दूसरी भूमिका स्वीकार की तब भी उसने आत्मबहुत्ववादका मन्तव्य तो चालू' ही रखा। उसने आत्माको-पुरुषको विभु और कूटस्थ माना तो सही, पर वैसे आत्मा देहभेदसे भिन्न-भिन्न माने । प्रत्येक कूटस्थ आत्मामें संसार एवं मोक्षका आभास उत्पन्न करानेवाला प्रधानतत्त्व भी प्रारम्भमें आत्मभेदसे भिन्न-भिन्न माना १. जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव ॥-सांख्यकारिका १८
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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