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२७.
लम्बे संघर्षके अनन्तर मोक्षवादने ही स्वर्गवादपर विजय प्राप्त की। पहले कर्म और तज्जन्य पुनर्जन्मको घटाने के लिए आत्म- तत्त्व के विचारने एक बड़ा क़दम उठाया था; अब मोक्षको घटाने के लिए उसे एक और नया क़दम उठाना पड़ा । इसकी वजह से आत्मतत्त्व के स्वरूप की मान्यतामें अनेक प्रकारकी स्पष्टता आई, जो इस समय सभी मोक्षवादी दर्शनोंमें एक तरह से स्थिर-सी प्रतीत होती है ।
श्रात्मतत्त्व
मोक्षका क्या स्वरूप है और वह किस तरह प्राप्त हो सकता है - इस विषय में अनेक मत प्रचलित थे और इस दिशा में अनेक चिन्तक व साधक अपनी-अपनी मान्यतः स्थापित करते थे । उन सबमें एक बातपर मतैक्य था कि मोक्ष प्राप्त होनेके पश्चात् फिरसे पुनर्जन्म के फन्दे में नहीं फँसना पड़ता । मोक्ष के स्वरूपकी विचाराके साथ ही आत्मवादियोंको आत्मतत्त्व के स्वरूप के बारेमें भी नये सिरे से सोचना पड़ा, और अपने-अपने माने हुए मोक्षके स्वरूपके साथ सुसंगत हो ऐसा आत्मतत्त्व मानना उनके लिए अनिवार्य सा हो गया। तत्त्वद्वैतवादियोंमें जो जीव या आत्माको व्यावहारिक कसौटीके आधारपर देहपरिमित और परिणामी मानते थे उन्होंने मुक्तिदशा में भी आत्मतत्त्वको परिमित और परिणामी ही माना ।" यह कल्पना सांख्यविचारकी उपयुक्त दूसरी भूमिका तक पहुँचे हुए मोक्षवादियोंको संगत प्रतीत न हुई । उन्हें इस कल्पनामें मुख्य रूपसे दो दोष दिखाई दिये- प्रथम तो. यह कि यदि आत्मा परिमित एवं परिणामी हो तो जड़तत्त्वकी दृष्टवदानुविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात् ॥
- सांख्यकारिका २
१. यह मान्यता ख़ास करके जैनपरम्परा में सुरक्षित है ।