SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ अध्यात्मविधारणा नहीं हो सकता। परम आदर्श तो वही हो सकता है जो प्राप्त होने के बाद शाश्वत टिके-जिसमेंसे पुनः कभी च्युत न होना पड़े। इस विचारमेंसे मोक्षकी कल्पनाका उदय हुआ और ऐसा माना गया कि जीवनका चरम और परम साध्य स्वर्ग नहीं, किन्तु मोक्ष है और मोक्ष तो पुण्यका सीधा फल नहीं है। पुण्य एवं पाप ये दोनों तो पुनर्जन्मकी गति-आगतिके दो चक्र हैं। इस बन्धनसे छूटना ही मोक्ष है और यही जीवनका अन्तिम आदर्श है । मोक्षकी ऐसी कल्पनाके साथ ही उसे सिद्ध करने के मार्ग भी नये सिरेसे सोचे गये और उनकी आयोजना भी हुई । ऐसा कहना चाहिये कि साधना अधिक अन्तष्टिकी ओर उन्मुख हुई। जो आचार, व्यवहार एवं अनुष्ठान जिस-जिस धर्मपंथ और समाजमें प्रचलित थे वे सब उस-उस धर्मपंथ व समाजमें प्रचलित तो रहे ही, पर साथ ही कई नये साधन भी अस्तित्वमें आये । पहलेके और बादके सभी अनुष्ठान अन्तर्ड ष्टिसे संचालित हों, इस ओर सविशेष लक्ष अब दिया जाने लगा। जो कुछ करना वह सबः निष्कामभावसे-निरीहभावसे और किसी भी प्रकारकी वासना या इच्छाके बिना करना ऐसा विचार आगे आता गया और अपना स्थान जमाता गया ।' जो स्वर्गके लक्ष्यसे आगे नहीं बढ़े थे उनके साथ प्रारम्भमें मोक्षवादियोंकी मुठभेड़ होती रही,२ पर १. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।। सिद्धयसिद्धयोः समो भत्वा समत्वं योग उच्यते ॥-गीता२.४७-४८ २. मीमांसक यज्ञ आदि धर्मका अन्तिम फल स्वर्ग मानते थे, जब कि सांख्य जैसे मोक्षवादियोंने उस मार्गका प्रबल विरोध किया और कहा कि यज्ञमार्ग तो दोषयुक्त है
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy