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________________ मात्मतत्त्व - २५ भूमिकामें स्वर्गप्राप्ति ही जीवनका चरम लक्ष्य था और इसी लक्ष्यकी सिद्धिकी दृष्टिसे समग्र धार्मिक एवं सामाजिक व्यवहार सुग्रथित हुए थे। इस स्थितिमें सहसा परिवर्तन हुआ। किसी तत्त्वचिन्तक और साधकको किसो विरल क्षणमें ऐसा भान हुआ कि स्वर्गप्राप्ति जीवनका चरम लक्ष्य माना जाता है, पर यह यथार्थ नहीं है। अधिकसे अधिक पुण्य या सुकृत करने के फलस्वरूप उच्चतम स्वर्गीय जीवन और सुख प्राप्त हो सकता है, परन्तु अन्ततः तो वह पुण्यपर ही अवलम्बित है और इसीलिए पुण्यकी पूंजी समाप्त होने पर वह खत्म होगा ही। परिणामस्वरूप उस जीवनमेंसे च्युत होकर फिरसे पुनर्जन्मके चक्रमें घूमना पड़ेगा । चाहे जितना दीर्घकालीन और उच्च कोटिका सुख भी यदि आखिरकार छोड़ना ही पड़े तो उसका शाश्वत मूल्य क्या ?' ऐसे बड़े भारी सुखके पश्चात् भी यदि दुःखके गड्ढे में गिरना ही पड़े तो वैसा सुख जीवनका चरम और परम आदर्श १. परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः । हेयं दुःखमनागतम् । -योगसूत्र २.१५-१६ बाधनालक्षणं दुःखम् । -न्यायसूत्र १.१.२१ विविधनाधनायोगाद् दुःखमेव जन्मोत्पत्तिः । न सुखस्याऽन्तरालनिष्पत्तेः । बाधानिवृत्तेर्वेदयतः पर्येषणदोषादप्रतिषेधः । दुःखविकल्पे सुखाभिमानाच । -न्यायसूत्र ४.१.५५-५८ तथा इन सूत्रोंपरके भाष्य, वार्तिक एवं तात्पर्यटीका । क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति | -गीता ६. २१
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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