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________________ अध्यात्मविचारणा भिन्न-भिन्न दो तत्त्व मानना-इन दोनों विचारों में कुछ अधिक फ़र्क नहीं है । अतएव यदि दोनों तत्त्व स्वतंत्र ही मानने हों तो एकको परिणामी और दूसरेको अपरिणामी मानना ही युक्तियुक्त है। ऐसे किसी विचारके कारण ही सांख्यपरम्पराकी द्वैतवादी भूमिकाने पुरुष अथवा चैतन्यको अपरिणामी माना। . इस समय आत्मवादी सभी भारतीय दर्शनोंमें मोक्षपुरुषार्थका अस्तित्व निर्विवाद रूपसे माना जाता है, पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस पुरुषार्थकी मान्यता तत्त्वचिन्तन और साधनाकी अमुक भूमिकाके समय ही दाखिल हुई होगी। अनात्मवादके विरोधमें आत्मवाद जब अस्तित्वमें आया तब वह अपने साथ पुनर्जन्मकी कल्पना भी लाया, पर मोक्षपुरु. पार्थकी कल्पना पुनर्जन्मकी स्पष्ट कल्पना रूढ़ होने के पश्चात् किसी समय अस्तित्वमें आई होगी, ऐसा प्रतीत होता है। पुण्य अथवा सुकृत करनेसे दिव्य या उच्च लोक ( योनि) में जन्म मिलता है तथा पाप अथवा दुष्कृत करनेसे नरक या तुच्छ लोकमें जन्म लेना पड़ता है-ऐसी मान्यता पुनर्जन्मकी कल्पनामें थी ही, और इसी मान्यताके ऊपर सामाजिक तथा धार्मिक जीवनका निर्माण हुआ था। इससे कोई भी दीर्घ दृष्टिवाला व्यक्ति सामाजिक एवं धार्मिक जीवन इस तरह जीना पसन्द करता जिससे वह सुकृत उपार्जन करे और मरणोत्तर उच्च योनिमें जन्म ले सके । जो इस तरह जीता वही धार्मिक समझा जाता था और उसीकी विशेष प्रतिष्ठा भी होती थी। जो दीर्घ व कठिन तप करे, जो नाना प्रकारसे त्याग करे, दान दे, यज्ञ-पूजा आदि करे वह स्वर्गमें अपने सुकृतके अनुसार दीर्घ एवं उच्च कोटिका सुख पाता है-ऐसी मान्यता समाजमें स्थिर हो चुकी थी और यही मान्यता लोगोंके उच्च चारित्र्यकी प्रेरक भी बनती थी। इस
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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