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अध्यात्मविचारणा । आदिके प्राचीन भागोंमें उल्लिखित विचारधाराओं में किसी एक मलतत्त्वको मानकर उसमेंसे जड़-चेतनके भेदवाली सृष्टिकी उपपत्ति की जाती थी। यदि मूलमें तत्त्व एक ही हो और उसीमेंसे दोनों चेतन-अचेतनकी भिन्न-भिन्न सृष्टि घटानी हो तो उस मूल कारणमें सृष्टियोंके अनुरूप ऐसा कोई सामर्थ्य तो मानना ही चाहिये। और हम देखते हैं कि इस तरहसे उसकी कल्पना भी की गई है और वह माना भी गया है। __उपनिषदोंमें 'तदैक्षत' इत्यादि शब्दोंके द्वारा वह सामर्थ्य सूचित किया गया है और ब्रह्मसूत्रमें उसीका 'ईक्षतेः२ सूत्र में निर्देश है। 'ईक्षण' से क्या अभिप्रेत है ?-इस प्रश्नका उत्तर 'संकल्प' दिया गया है। मूल एक तत्त्व में ऐसी संकल्पशक्ति है जिसके कारण वह बहु अर्थात् नाना बनता है । एक मूलतत्त्वमेंसे बहुत्व अथवा नानात्वकी उपपत्ति भी किसी एक ही तरहसे नहीं की जाती थी। कोई चिन्तक एक तरहसे तो कोई दूसरी तरहसे ऐसी उपपत्ति करता, पर इतना तो स्पष्ट है कि ऐसी उपपत्तिके मूलमें परिणामवाद था । तत्त्व मूलमें तो एक है, पर वह संकल्पबलसे अनेक रूपमें परिणत होता है अर्थात् अनेक रूपमें बनता है-ऐसा माना जाता था। इसके समर्थनमें 'आत्मनि खलु अरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्व विदितम्', 'एकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातम्' इत्यादिका निर्देश किया जा सकता है। १. तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ।
-छान्दोग्य० ६.२.३, ऐतरेय १.१.१ २. ब्रह्मसूत्र १.१.५. ३. बृहदारण्यक० ४.५.६.
४. यथा सौम्य केन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ॥ यथा सौम्यैकेन लोहमणिना सर्व