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________________ श्रात्मतत्त्व २१ जिस तरह तत्त्वाद्वैतविचारसरणी परिणामवाद मान करके ही जड़-चेतन सृष्टिका भेद एवं पुनर्जन्म आदि घटाती थी, उसी तरह तत्त्वद्वैतविचारसरणी भी यह सब घटाते समय दोनों मूलतत्त्वोंमें परिणामवाद मानती थी। अतः तत्त्वचिन्तनकी इस भूमिकामें दोनों विचारसरणियोंको परिणामवाद एक-सा अभिप्रेत था। जड़-चेतन सृष्टिका भेद और पुनर्जन्म तथा उससे सम्बद्ध कर्मतत्त्व आदिकी बातें तत्त्वचिन्तनमें यद्यपि स्थिर हो गई थीं, फिर भी दोनों विचारसरणियोंके बीच ऐसा संघर्ष भी चलता था कि कौनसी विचारसरणी दूसरीकी अपेक्षा सोपपत्तिक एवं सबल है ? इस संघर्ष में तत्त्वद्वैतवादियोंका तत्त्वाद्वैतवादियोंके ऊपर आक्षेप यह था कि तुम पुनर्जन्म आदि सब कुछ मानते हो और परिणामवाद स्वीकार करके उसकी उपपत्ति भी करते हो, पर आखिरकार तुममें और भूतचैतन्यवादियोंमें क्या फर्क है ? भूतचैतन्यवादी, जो पुनर्जन्म आदिको नहीं मानते, चातुभौतिक अणुओंके विलक्षण संघातसे चैतन्यकी उत्पत्ति स्वीकार करते हैं; जब कि तुम चातुभौतिक अणुओंके बदले एक परिणामी मूलभूत तत्त्व स्वीकार करके उसमेंसे चैतन्यकी उत्पत्ति या आविर्भाव मानते हो । अतएव यदि वे जड़चैतन्यवादी कहलाते हैं तो तुम भी एक तरहसे जड़चैतन्यवादी ही हो । वे जिस प्रकार जड़ भूतोंमें चैतन्यकी उत्पादक शक्ति मानते हैं, उसी तरह तुम भी मूल एक ही तत्त्वमें चैतन्यकी उत्पादक या व्यंजक शक्तिकी कल्पना करते लाहमयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं लोहमित्येव सत्यम् ।। यथा सौम्य केन नख कृन्तनेन सर्व काष्ायसं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं कृष्णायसमित्येव सत्यमेवं सौम्य स आदेशो भवतीति ।। -छान्दोग्य० ६.१.४-६
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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