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प्रात्मतत्व
१६ अव्यक्त, प्रधान अथवा प्रकृति है।' दूसरी विचारसरणी पहले हो से ऐसा मानती आई है कि कोई एक ही तत्त्व जड़ और चेतन उभयरूप नहीं हो सकता। इससे वह प्रारंभसे ही जड़ और चेतन ऐसे दो परस्पर अत्यन्त भिन्न तत्त्वोंको मानकर चलती थी।
चरकमें उल्लिखित अग्निवेशके प्रश्नोंके उत्तरमें पुनर्वसुने आत्मतत्त्वका जो निरूपण किया है। वह स्वयं पुनर्वसुका नहीं है, पर पहलेसे चले आनेवाले आत्मज्ञ लोगोंके एक मन्तव्यके तौरपर ही उसने उसका निर्देश किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि चरकमें उल्लिखित तत्त्वाद्वैतकी विचारसरणी पहले ही से चलती . आ रही थी। छान्दोग्य, बृहदारण्यक आदि उपनिषदोंके प्राचीन भागोंमें हम देखते हैं कि वहाँ भी ऐसी तत्त्वाद्वैतकी विचारसरणी मौजूद है। कहींपर सत्को मूलतत्त्व मानकर उसमें से जड़-चेतनरूप नाना सृष्टिका विकास वर्णित है, कहींपर असत्को मौलिक मानकर उसका विकास दरसाया गया है तो कहींपर आत्मा शब्दसे मूलतत्त्वका उल्लेख करके उसका विकास दिखलाया गया है। उपसंहारमें उस सत् तत्त्वको ही ब्रह्म अथवा आत्मा कहा गया है। इसपरसे ज्ञात होता है कि छान्दोग्य, बृहदारण्यक
१. चरकसंहितागत शारीरस्थान,कतिधापुरुषीय अ.१,श्लो.१७,६१,१५६ २. इत्यनिवेशस्य वचः श्रुत्वा मतिमतां वरः । सर्व यथावत् प्रोवाच प्रशान्तात्मा पुनर्वसुः ॥
-चरकसंहिता, शारीरस्थान, अ. १, श्लो. १५ । ३. सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं तद्धक आहुरसदेवेदमग्र श्रासीदेकमेवाद्वितीयम् ।
-छान्दोग्योपनिषद् ६.२.१ आत्मैवेदमग्र आसीत् । -बृहदारण्यक० १.४.१, ऐतरेय १.१.१ ४. ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्सत्यं स आत्मा, तत्त्वमसि श्वेतकेतो।
-छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७.