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अध्यात्मविचारणा
अच्छे-बुरे लोक - लोकान्तरवादसे आगे न बढ़े हों। आगे जाकर जब मोक्षपुरुषार्थ का स्वीकार हुआ तब उसे ख्याल में रखकर दोनों पक्षोंने अपनी-अपनी मान्यताका ढाँचा कायम रखके उसमें मोक्षके साथ संगत हों ऐसे साधनागामी विचार एवं तत्त्व बढ़ाये घटाये हों ।
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यहाँपर इतना ध्यान रखने जैसा है कि प्राचीन उपनिषदों में आत्मतत्त्व से सम्बद्ध जो-जो विचारणाएँ संगृहीत हैं उनके सिवाय भी आत्मतत्त्वसम्बन्धी दूसरी विचारणाएँ लोगों में प्रचलित थीं जो निर्ग्रन्थ परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थांशों में उल्लिखित हैं । '
तत्त्वाद्वैतविचारसरणी जिस एक मौलिक तत्त्वको मानकर आगे चलती थी वह तत्त्व ऐसा माना गया था कि जिसमें से जड़सृष्टि एवं चेतन सृष्टि दोनोंका उद्भव सम्भव हो और उसकी उपपत्ति भी हो सके । व्यवहार में सर्वानुभवसिद्ध ऐसे जड़ एवं चेतनके भेदको यह विचारसरणी मूलभूत एक ही तत्त्वमें से घटाती थी । अतएव उस मूलभूत एक तत्त्वको जड़ अर्थात् अचेतन ही कहना अथवा चेतन ही कहना शक्य नहीं था । उस तत्त्वमें जड़ और चेतन दोनों प्रकार के सर्जनों की शक्ति थी । इसीलिए कभी तो 'चेतना' शब्द से और कभी 'प्रकृति' शब्दसे उसका उल्लेख एवं व्यवहार हुआ है । वह मूलतत्त्व प्राचीन व्यवहार के अनुसार ब्रह्म,
१. प्रज्ञापनासूत्र प्रथम पद, भगवतीसूत्र ( २५० ६ ), जीवाजीवाभिगम आदि आगमों में 'निगोय' (निगोद) नामसे एक जीवराशिका वर्णन श्राता है । ऐसा प्रतीत होता है, यह मान्यता बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है । इसीके आधारपर जैनपरम्परा के जीववादका सम्बन्ध 'एनिमिज्म' के साथ पाश्चात्य विद्वान् जोड़ते हैं । निगोद अर्थात् एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म साधारण शरीर में अनन्तानन्त जीवोंका स्वतंत्र अस्तित्व ।