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आत्मतत्त्व
यह जीव पुण्य-पापके अनुसार पुनर्जन्मके चक्रका अनुभव करता है । यही जीव आत्मा कहलाता है। अजीवतत्त्व उसके ऐसे अनुभवमें साधक या बाधक बनता है। ___ उपर्युक्त दोनों पक्षोंके बीच प्रस्तुतमें ध्यान देने जैसा मुख्य भेद यह है कि प्रथम पक्ष जीव और अजीव इन दोनों व्यवहारगम्य तत्त्वोंको माननेपर भी मूल में प्रधानाद्वैतवादी है, जब कि द्वितीय पक्ष मूलतः ही जीव-अजीव तत्त्वोंको भिन्न एवं स्वतःसिद्ध माननेके कारण द्वैतवादी है। दोनों पक्षों के बीच प्रस्तुतमें ध्यान देने जैसी समानता इस प्रकार है-दोनों पुनर्जन्म और उसके कारणरूपसे धर्म-अधर्म अथवा पुण्य-पापको मानते हैं, दोनों जीवतत्त्व में सुख-दुःखका अनुभव करनेकी चेतनाशक्ति स्वीकार करते हैं और जीवतत्त्वमें पुरुषार्थ करनेकी शक्ति या सामर्थ्य भी मान्य करते हैं। दोनोंके मतसे जीवतत्त्वका कद स्थूल देह जितना होता है, अर्थात् जब स्थूल देह बड़ी होती है तब उसमें विद्यमान जीवतत्त्वका कद बड़ा होता है और जब वह देह छोटी या अति सूक्ष्म होती है तब जीवतत्त्वका क़द उसके जितना होता है । सारांश यह है कि दोनों पक्षोंकी दृष्टिसे जीवतत्त्व संकोचविस्तारशील है और देह-भेदसे जीव-भेद मानने के कारण दोनों पक्ष नाना-आत्मवादी हैं । प्रथम तत्त्वाद्वैतविचारसरणी सांख्यपरम्पराका मूल है, जब कि दूसरी तत्त्वद्वैतविचारसरणी जैन परम्पराका मूल है।
दोनों पक्ष अनात्मवादके विरुद्ध पुनर्जन्मकी प्रक्रिया और उसके कारणके तौरपर पुण्य-पापकी शृंखला स्वीकार करते हैं, फिर भी वे पहले ही से मोक्षपुरुषार्थ मानते थे ऐसा निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। अधिक सम्भव तो ऐसा है कि वे अपने विचारोंकी प्रारम्भिक दशामें पुनर्जन्म और उसके परिणामस्वरूप