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________________ १६ अध्यात्म विचारणा प्रधान तत्त्व सर्जन - व्यापार करता है । जब रजस् और तमस्की मात्राकी अपेक्षा सत्त्वकी मात्रा विशिष्ट होती है तब सत्त्वप्रकर्षवाला एक कार्य आविर्भूत होता है । इसे सत्त्व की प्रधानता के कारण सत्त्व भी कहा जाता है और सुख-दुःख आदिका अनुभव करनेकी जीवनशक्ति धारण करनेके कारण यह जीव भी कहा जाता है । इस स अथवा जीव में धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, सुख-दुःख, ऐश्वर्य अनैश्वर्य जैसे भाव होते हैं और यह धर्म - अधर्मके अनुसार उच्चावच जन्म धारण करता है, अर्थात् एक स्थूल देह छोड़कर दूसरी स्थूल देह धारण करता है । स्थूल देहके विनाशके साथ ही उस सत्त्वका विनाश नहीं होता और इसी - लिए वह पुनर्जन्मवान् आत्मा कहा जाता है । जब सत्त्वकी मात्रा कम और अभिभूत होती है तथा रजस् एवं तमस् गुणोंकी मात्रा मुख्य रूपसे कार्य करती है तब उस प्रधान नामक मूल तत्त्वमें से जो सर्जन होते हैं वे ज्ञान, सुख जैसे भावोंसे रहित होते हैं और इसीलिए जड़ या अजीव कोटिके समझे जाते हैं । ऐसे जड़ तत्त्व जीवतत्त्व के जीवन में साधक या बाधक बनते हैं । समग्र विश्व मूलमें तो प्रधानसे ही ओतप्रोत है, पर इस प्रधानके जीव एवं अजीव रूप दो सर्जनप्रवाह बहते और कार्य करते हुए दिखाई देते हैं । द्वितीय पक्ष - इस पक्षमें जीव और अजीव ये दोनों तत्त्व मूलमेंसे ही भिन्न माने गये हैं । इन दोनोंका किसी एक मूल कारणमेंसे उत्पाद या आविर्भाव नहीं होता । जिस प्रकार परमाणु आदि जीव तत्त्व स्वतःसिद्ध एवं अनादि हैं उसी प्रकार जीवतत्व भी स्वतः सिद्ध और अनादि है । यह पक्ष भी प्रथम पक्षकी भाँति जीव धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, ज्ञान-अज्ञान, सुख-दुःख आदि भावोंकी उत्पत्ति मानता है और यह स्वीकार करता है कि .
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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