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अात्मतत्त्व
अनात्मवादी लोग सजीव प्राणीमात्रमें विलसित जीवन एवं चैतन्यका इनकार करते हों ऐसी बात तो नहीं है, पर उनकी जीवन व चैतन्यविषयक उपपत्ति यह है कि पृथ्वी आदि चार भौतिक एवं सूक्ष्मतम अणुओंका संघात जब देहरूपमें परिणत होता है तभी उनके विलक्षण संयोगके कारण जीवनतत्त्व देहमें दिखाई देता है और कार्यकर बनता है, और जब वैसा विलक्षण संयोग नष्ट होता है तब उस जीवन या चैतन्यका भी स्वतः प्रलय हो जाता है।'
ऐसा प्रतीत होता है कि इस विचारसरणीके विरुद्ध जो आत्मवादी पक्ष थे उनमें दो अधिक प्राचीन हैं- पहला पक्ष प्रकृतिजन्य जीववादी है और दूसरा स्वतःसिद्ध जीववादी है। इन दोनों पक्षोंको मान्यताएँ संक्षेपमें इस प्रकार हैं
प्रथम पक्ष-रजस्, तमस् और सत्त्व इन तीन अंशों या गुणोंवाला एक स्वतःसिद्ध प्रधान तत्त्व है, जिसे प्रकृति भी कहते हैं । इन तीन गुणोंके विविध तारतम्य या वैषम्यकी वजहसे
इसके साथ तुलना करो
सव्वे सत्ता अवेरा श्रव्यापऽझा अनीघा सुखी अत्तानं परिहरन्तु । सब्बे पाणा' 'सब्बे भता""सब्बे पुग्गला' परिहरन्तुति ।
-पटिसंभिदा २,१३० तथा विसुद्धिमग्ग ६.६ १. देखो सर्वदर्शनसंग्रहमें चार्वाकदर्शन और Six Systems of Indian Philosophy by Max Muller, p. 94-104
२. इसके लिए चरकसंहितागत शारीरस्थान प्रथम अध्यायकतिधापुरषीय प्रकरण देखना चाहिये। उसमें जो राशिपुरुषका वर्णन है वह २४ तत्त्वोंवाला सांख्य मन्तव्य है। महाभारत में भी २४ तत्त्व माननेवाली तांख्यपरम्पराका उल्लेख है।