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अध्यात्मविचारणा
इन सब भूमिकाओं के पीछे रहा हुआ समान तत्त्व इतना ही है कि चेतना और ज्ञानशक्ति चार या पाँच भूतोंके विलक्षण संयोगमात्र से सर्वथा नवीन ही पैदा होती है और वह जन्म से लेकर मरणपर्यंत कार्य करती है, परन्तु मृत्युके पश्चात् शेष नहीं रहती । सभी आत्मवादी दर्शनोंकी सामान्य भूमिका यह है कि पांचभौतिक देहके जन्म से पूर्व ही सदा विद्यमान रहनेवाला ऐसा कोई तत्त्व है जिससे सम्बन्ध होनेपर ही वह देह सचेतन बनती है और देहका अवसान होनेपर भी वह तत्त्व सर्वदा के लिए कायम रहता है | त्मवादी मान्यताविषयक यह सामान्य भूमिका धीरे-धीरे किस तरह तैयार होती गई, इसपर अब हम विचार करें ।
प्रारण, भूत, जीव, सत्त्व, पुद्गल, चित्त, पुरुष, ब्रह्म, आत्मा और चेतन जैसे शब्द जीवनधारी आत्मतत्त्व के लिए अलगअलग प्रयुक्त हुए हैं। आज जिस 'प्राण' शब्दका अर्थ केवल वसोवास होता है वह प्राण शब्द किसी समय श्वासोच्छ्वास लेनेवाले और साथ ही साथ पुनर्जन्म धारण करनेवाले आत्मा के लिए प्रयुक्त होता था । इसी तरह जिस 'भूत' शब्दका आज पृथ्वी आदि पाँच भूत ऐसा अर्थ लिया जाता है वह भूत शब्द भी भौतिक देहधारी जीवित पर पुनर्जन्म लेनेवाले चेतनके लिए प्रयुक्त होता था । इसी प्रकार सत्त्व गुणमें तथा सत्त्वगुणप्रधान बुद्धितत्त्व में प्रचलित 'सत्त्व' शब्दका प्रयोग पुनर्जन्म प्राप्त करनेवाले जीवके लिए होता था । '
कारण ही प्रकाशमान एवं कार्यकर हैं । न्यायसूत्र ( ३.१.१ - २७ ) में श्रात्मवाद की स्थापना करते समय देह, इन्द्रिय, मन श्रादिको आत्मा माननेवाले पक्षों का निरास किया गया है । १. सव्वे पाणा सव्वें भूया
सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हन्तव्वा
— आचारांगसूत्र १,४.१.१