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________________ ११ लगा। इसीलिए मनुने 'नास्तिको वेदनिन्दकः' ऐसा कहा है। इसी तरह वेदको माननेपर भी यदि ईश्वरवादी न हो तो वह भी व्यवहारमें नास्तिक समझा जाता है। परंतु यहाँपर तो देखना यह है कि मूलमें आस्तिक और नास्तिक पद किस अर्थमें प्रयुक्त हुए हैं । यह विचार हमें इतना तो माननेको बाधित करता है कि वैदिक परम्परा और संस्कृत भाषाकी अनन्य प्रतिष्ठा स्थापित करनेवाला पाणिनि नास्तिक पदसे एक ऐसा पक्ष उपस्थित करता है जो वैदिक मान्यतासे विरुद्ध मान्यता रखता हो और जिसकी जड़ कुछ अधिक गहरी हो । शब्दव्युत्पादक पाणिनिके इस सूत्रसे नीचेकी दो बातें निर्विवादरूपसे फलित होती हैं-(१) तत्कालीन जनसमाज अथवा विद्वत्समाजमें जो 'आस्तिक' और 'नास्तिक' शब्द उपर्युक्त अर्थमें प्रचलित थे उन्हें संस्कृत भाषामें साधु शब्दके तौरपर स्थान देना; और (२) आत्मवादी एवं अनात्मवादी दोनों प्रकारको विचारसरणी रखनेवाले लोग पाणिनिके समयमें कमोबेश मात्रामें विद्यमान थे और वे अपनी विचारसरणीका प्रचार भी करते थे। अब हम यह देखें कि आत्मा और पुनर्जन्मको न माननेवाले पक्षोंके बारेमें अन्यत्र कहीं पाणिनिके समय जितने पुराने साहित्यमें चर्चा हुई है या नहीं ? बौद्ध पिटकों में ऐसे आचार्योंका निर्देश मिलता है जो भूतसंघातके अतिरिक्त मरणके बाद कायम रहे ऐसा कोई तत्त्व नहीं मानते थे और फिर भी अपने १. योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः । स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥ - मनुस्मृति २.११ २. दीघनिकायगत ब्रह्मजालसुत्त तथा पायासीसुत्त ।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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