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श्रात्मतत्व
मानते हैं कि वैदिक मंत्रोंमें आध्यात्मिक प्रतिपादन है और भौतिक अर्थके साथ ही आध्यात्मिक अर्थ भी जुड़ा हुआ है।
वेदके वे सूक्त प्राचीन हों या अर्वाचीन, पर उनके ऊपर उस. उस काल में रचित तथा सूक्तके ऋषियोंके अभिप्रेत अर्थको ही प्रकाशित करनेवाली कोई व्याख्या यदि कभी लिखी गई हो तो वह आज उपलब्ध नहीं है। सायणके भाष्य बहुत ही अर्वाचीन हैं । सायणके ऊपर शांकर मतका जो प्रबल प्रभाव है उसीसे प्रेरित होकर उसने वेदके मंत्रोंका अर्थ करनेका कई जगह प्रयत्न किया है । इसी प्रकार जरथोस्त्रियन गाथाकी व्याख्याएँ भी गाथाकी रचनाके लगभग दो हजार वर्ष बादमें बननी शुरू हुई। ये व्याख्याएँ जब ईरानमें लिखी गई तब ईरानमें ईसाई धर्मका प्रभाव पड़ चुका था, अतः इन व्याख्याओंमें उस प्रभावको छाया पड़ी है ऐसा डॉ० तारापोरवाला-जैसे संशोधक मानते हैं। चाहे जो कुछ हो, परन्तु इतना तो ज्ञात होता है कि उतने प्राचीन कालमें आत्माके स्वरूपके बारेमें कोई सुनिश्चित अथवा सुस्पष्ट ख्याल यदि प्रचलित रहा भी हो तो भी वह उत्तरकालीन वाङ्मयकी भाँति उन प्राचीन वैदिक मंत्रों में स्पष्ट रूपसे निर्दिष्ट नहीं है।
और यह भी विचारणीय बात है कि उन प्राचीन वैदिक मंत्रों के प्रणेता ऋषियोंका आत्मतत्त्वविषयक आध्यात्मिक दर्शन रहा भी हो तो भी आत्मतत्त्व और उसके साथ अनिवार्य रूपसे संकलित पुनर्जन्मका विचार करनेवाला वह दर्शन मूलमें ही उनका अपना है या उनके आगमनसे पूर्व इस देशमें रहनेवाली अथवा बाहरसे आकर बसनेवाली द्राविड़ आदि जातियोंके आत्मतत्त्व एवं पुनर्जन्म आदिके विचारोंसे उपकृत एवं प्रभावित है-इस विषयमें इतिहासज्ञोंमें अनेक मतभेद हैं। 'नैको मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम्'-यह उक्ति यहाँपर भी चरितार्थ होती है। प्रो० कीथने