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आत्मतत्त्व
[१] भारतीय धर्मोंकी ऐसी कोई भी परम्परा इस समय उपलब्ध नहीं है, जिसमें आत्मतत्त्वका एक या दूसरे नामसे स्वीकार न किया गया हो। आत्मवादी सभी दर्शनोंको समान रूपसे मान्य हो ऐसा आत्माका स्वरूप यह है कि प्रकृति अथवा परमाणु-जैसे जड़ एवं भौतिक तत्त्वमेंसे निष्पन्न नहीं होनेवाला, पर स्वभावसे ही मूलमें भिन्न ऐसा चेतनाशक्ति धारण करनेवाला तत्त्व ही आत्मतत्त्व है। यह स्वरूपविषयक मान्यता इस समय तो सभी भारतीय दर्शनोंमें सिद्ध-जैसी ही है, पर मान्यताको यह भूमिका शुरूसे ही ऐसी रही है या उसमें क्रमशः विकास होते-होते यह भूमिका सिद्ध हुई है ?-यह प्रश्न उपस्थित होता है। इससे मैं पहले इस बारे में ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करके बादमें तात्त्विक दृष्टिसे विचार करना चाहता हूँ। ____उपनिषद् आदि पीछे के ग्रन्थोंमें जैसी स्पष्ट आत्मचर्चा और विचारणा है वैसी कोई विचारणा वेदके प्राचीनतम सूक्तोंमें नहीं है। उसमें सत्-तत्त्व' अथवा ब्रह्मके सूचक जो मंत्र मिलते हैं वे बादके हैं ऐसा इतिहासके विद्वानोंका मानना है। इससे विपरीत, निरुक्त, भारतीय पण्डित और योगारूढ़ श्री अरविन्द तक ऐसा १. एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ।
-ऋग्वेद १.१६४.४६, पुरुषसूक्त (ऋग्वेद) १०.६०. २. The Secret of the Vedas.