SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० अध्यात्मविचारणा तात्पर्य केवलज्ञानके रूपमें ही फलित होता है । चारित्रको पूर्णताका अर्थ है मोहका सर्वथा क्षय । मोहका क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट होता है जो सांख्यकी विवेकख्याति यानी ऋतम्भरा प्रज्ञा तथा बौद्धकी प्रज्ञाके ही समान है। केवलज्ञान होनेके बादका जीवनकाल तो जीवन्मुक्त दशा है। ऐसी दशाका वर्णन सांख्य और बौद्धमें भी मिलता ही है। इसी तरह केवलाद्वैत ब्रह्मवादी भी ब्रह्मभाव अर्थात् ब्राह्मी स्थितिके अन्तिम एवं मुख्य उपायके तौरपर जीव-ब्रह्मके अभेदज्ञानको ही मानता है। इस अभेदका श्रवण-मननसे अपरोक्ष ज्ञान होते ही तुरन्त मुक्ति हो जाती है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अनुग्रह करने में समर्थ स्वतंत्र ईश्वरतत्त्वको न माननेवाली किसी भी मोक्षवादी दर्शन-परम्परामें प्रपत्तिभक्तिका स्थान ही नहीं है। इससे विपरीत जो अनुग्रहसमर्थ स्वतंत्र ईश्वर अथवा ब्रह्मतत्त्वको मानते हैं (यथा विशिष्टाद्वैती, शुद्धाद्वैती तथा द्वैतवादी मध्व आदि) उनकी परम्परामें प्रपत्तिस्वरूप भक्तिका तत्त्व ही मुख्य रूपसे विकसित हुआ है और वही मोक्षका अन्तिम उपाय माना गया है । आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान आदि तो भक्तिके पोषक अंग हैं। ___ कर्ममार्गके उत्थान तथा उसकी स्थापनाके पीछे एक भिन्न ही दृष्टि रही है । वह दृष्टि है लोकसंग्रह अर्थात् सबके क्षेम या श्रेयकी। साधक जबतक ज्ञानमार्ग या भक्तिमार्गद्वारा मुख्य रूपसे अपने वैयक्तिक श्रेयका विचार करता है तबतक ये दोनों मार्ग कर्ममार्गकी भूमिका नहीं बन सकते, परन्तु जब ज्ञानमार्गी अथवा भक्तिमार्गी अपने श्रेयके अतिरिक्त लोकसंग्रह-लोककल्याणकी भावनाका विकास करता है तब उसका ज्ञानमार्ग अथवा भक्तिमार्ग कममागेकी भूमिका बन जाता है। इस प्रकार कर्ममार्गका अवलम्बन न लेनेवाले ज्ञानी और भक्त भी विभिन्न परम्पराओंमें हुए हैं
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy