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________________ अध्यात्मसाधना १३१ तथा लोकसंग्रहकी भावनावाले ज्ञानमार्गी या भक्तिमार्गी भी होते आये हैं जिन्होंने कर्ममार्गको ठीक-ठीक विकसाया है। ___ गीता मुख्य रूपसे लोकसंग्रहकी दृष्टि रखकर कर्ममार्गका समर्थन करती है, पर वह ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग दोनोंकी भूमिकाको स्वीकार करके ही । दूसरे अध्यायमें जहाँ तक (श्लोक ३८ तक) सांख्यबुद्धिका मुख्य निरूपण किया है वहाँतक सांख्यकी ज्ञानमार्गकी भूमिका स्वीकार करके उसमें भी यह लोकसंग्राही कर्ममार्गकी स्थापना करती है । जहाँसे योगनिष्ठाका अवलम्बन लेकर निरूपण प्रारम्भ किया है वहाँसे इसने योगसाधनाके विविध मार्गों तथा उनके द्वारा उत्पन्न होनेवाली विविध भूमिकाओंका आश्रय लेकर मुख्यरूपसे अर्पणस्वरूप भक्तिकी भूमिकापर ही कर्ममार्गकी स्थापना की है, और इस सर्पिणरूप प्रपत्ति-भक्तिको केन्द्रमें रखकर ही कर्ममार्गका प्राणप्रद तत्त्व प्रदर्शित किया है। इस प्रकार गीतामें सांख्यके ज्ञानयोग तथा भागवतके भक्तियोगको लोकसंग्राही कर्मयोगके साथ मिलाकर इन दोनों योगोंके वैयक्तिक मोक्षसाधनरूप प्राचीन स्वरूपका विकास किया गया है। __ जैनपरम्पराने प्रवृत्तिलक्षी अंगकी अपेक्षा निवृत्तिलक्षी अंगपर अधिक भार दिया है, इसलिए वह बौद्ध स्थविरमार्गकी भाँति वैयक्तिक मोक्षकी चर्चा में ही विशेष रस लेती रही है । जब बौद्धपरम्परामें केवल वैयक्तिक मोक्षकी चर्चाने असन्तोष उत्पन्न किया तब उसमेंसे महायानी पंथ फूट निकला। उसने सर्वसंग्राहीसर्वकल्याणकारी दृष्टिका विकास एवं स्थापन यहाँतक किया कि जबतक एक भी प्राणी बद्ध हो तबतक वैयक्तिक मोक्ष शुष्क एवं रसविहीन है'। गीता और महायान दोनों अपने-अपने ढंगसे १. एवं सर्वमिदं कृत्वा यन्मयाऽऽसादितं शुभम् । तेन स्यां सर्वसत्त्वानां सर्वदुःखप्रशान्तकृत् ॥ ३. ६
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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