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अध्यात्मसाधना
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साधकोंमें श्रद्धाका तत्त्व तो होता ही है और इसीलिए वे 'बुद्ध सरणं गच्छामि' अथवा 'अरिहन्ते सरणं पवज्जामि' कहकर अपने-अपने प्रवर्तकोंके प्रति पूर्ण आदर प्रकट करते हैं; फिर भी वे मनमें इतना तो स्पष्ट रूपसे जानते ही हैं कि बुद्ध या अरिहन्त सर्वथा वीतराग होने के कारण किसीपर अनुग्रह अथवा निग्रह नहीं कर सकते । केवलाद्वैती तो केवल ब्रह्मतत्त्वको ही पारमार्थिक मानता है । उसकी इस मान्यतामें ईश्वर जैसा कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं होता; वह तो केवल सोपाधिक तथा काल्पनिक वस्तु है । अतः द्वैतसापेक्ष सर्वार्पणकी वृत्ति उसमें भी उदित नहीं हो सकती । इसलिए अनीश्वरवादी द्वैत एवं केवलाद्वैत परम्परामें प्रपत्तिरूप परमभक्तिका मार्ग विकसित होना सम्भव ही नहीं होता । हुआ भी ऐसा ही । अतएव हम देखते हैं कि सांख्यदर्शनमें मोक्षके उपायके तौरपर मुख्य रूपसे विवेकख्यातिका ही निरूपण है, और इसीलिए हम सांख्यदर्शनावलम्बी योगशास्त्र में भी देखते हैं कि उसमें अविप्लव - विवेकख्यातिको ही हानोपाय के रूपमें स्वीकार किया गया है । सांख्यदर्शन में अथवा सांख्यदर्शनावलम्बी योगशास्त्रमें भक्ति अंगका निरूपण ही नहीं है । यह सही है कि योगशास्त्र ईश्वरतत्त्वका निर्देश कर उसके जपको साधनामें स्थान दिया है, किन्तु यह तो भिन्न-भिन्न परम्पराओंके साधकोंके रुचिभेदको लक्षमें रखकर एक विकल्पके तौरपर ही स्वीकार किया गया है । यह तो योगशास्त्रकी सर्वसंग्राहकताका केवल एक लक्षण कहा जा सकता है । इसे सांख्यदर्शनका मूल मंत्र नहीं कहा जा सकता । सांख्यदर्शन की ही भाँति बौद्धदर्शनने भी मोक्षके उपायोंमें प्रज्ञाको ही सर्वोपरि स्थान दिया है। जैनपरम्परामें भी यही बात है । यद्यपि शब्दतः जैनपरम्परा मोक्षमार्गके रूप में चारित्रको अन्तिम स्थान देती है, किन्तु सूक्ष्मतासे विचार करनेपर उसका
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