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________________ १२८ अध्यात्मविचारणा गीताके व्याख्याभेदके कारण इसने आज भी अनेक प्रकारसे विचारकोंका ध्यान आकर्षित किया है। कोई गीताका तात्पर्यार्थ ज्ञानयोगके रूपमें निकालता है तो कोई भक्ति अथवा कर्मयोगके रूपमें । प्रत्येक पक्ष अपने अभिप्रेत तात्पर्यको मुख्य तथा अन्यको उसका अंगरूप मानता है । इस प्रकार प्रत्येकको ज्ञान, भक्ति तथा कर्मयोग मान्य है, किन्तु उनका मतभेद गौणता-मुख्यताविषयक है । गीता एक अखण्ड ग्रन्थ है। उसमें ये तीनों योग निरूपित हैं। इसलिए इतना तो निर्विवाद सिद्ध है कि ज्ञान, भक्ति तथा कर्मयोगरूप तीनों आध्यात्मिक मार्ग साधकों तथा तत्त्वचिन्तकोंको मान्य हैं । अधिकार और रुचिभेदके कारण किसी एक व्यक्तिमें एक मार्गका प्राधान्य होता है तो दूसरे व्यक्तिमें दूसरे मार्गका । ऐसा होना स्वाभाविक भी है, पर यहाँ तो सोचना यह है कि इस प्रकार के अधिकार तथा रुचिभेदका पोषण करनेवाली दार्शनिक भूमिका कौन-सी है ? ___ इसका उत्तर दार्शनिक मान्यताभेदके अध्ययनसे प्राप्त हो जाता है। जो परम्पराएँ ईश्वरकर्तृत्ववादी नहीं हैं ( यथा जैन, बौद्ध और सांख्य ) तथा जो परम्परा द्वैतवादी नहीं है (यथा केवलाद्वैत ) उनमें मोक्षके उपायके रूपमें ज्ञानमार्गका ही प्राधान्य हो सकता है। प्रपत्ति जैसी उत्कट कोटिकी भक्ति स्रष्टा और न्यायदाताको स्वीकार किये बिना सहज भावसे न तो हृदयमें उत्पन्न ही हो सकती है और न टिक ही सकती है। सर्वार्पण भक्ति तभी सम्भव हो सकती है जब साधक अपने विकास अथवा उद्धारके लिए किसीपर दृढ़ विश्वास रखता हो। स्वतंत्र ईश्वर न माननेवाले द्वैतवादी अथवा अद्वैतवादी इस प्रकारकी किसी अनुग्रह करनेवाली विभूतिको नहीं मानते, अतः उनमें ऐसी सर्वार्पणकी वृत्ति उदित ही नहीं हो सकती। इस प्रकारके
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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