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अध्यात्मविचारणा गीताके व्याख्याभेदके कारण इसने आज भी अनेक प्रकारसे विचारकोंका ध्यान आकर्षित किया है। कोई गीताका तात्पर्यार्थ ज्ञानयोगके रूपमें निकालता है तो कोई भक्ति अथवा कर्मयोगके रूपमें । प्रत्येक पक्ष अपने अभिप्रेत तात्पर्यको मुख्य तथा अन्यको उसका अंगरूप मानता है । इस प्रकार प्रत्येकको ज्ञान, भक्ति तथा कर्मयोग मान्य है, किन्तु उनका मतभेद गौणता-मुख्यताविषयक है । गीता एक अखण्ड ग्रन्थ है। उसमें ये तीनों योग निरूपित हैं। इसलिए इतना तो निर्विवाद सिद्ध है कि ज्ञान, भक्ति तथा कर्मयोगरूप तीनों आध्यात्मिक मार्ग साधकों तथा तत्त्वचिन्तकोंको मान्य हैं । अधिकार और रुचिभेदके कारण किसी एक व्यक्तिमें एक मार्गका प्राधान्य होता है तो दूसरे व्यक्तिमें दूसरे मार्गका । ऐसा होना स्वाभाविक भी है, पर यहाँ तो सोचना यह है कि इस प्रकार के अधिकार तथा रुचिभेदका पोषण करनेवाली दार्शनिक भूमिका कौन-सी है ? ___ इसका उत्तर दार्शनिक मान्यताभेदके अध्ययनसे प्राप्त हो जाता है। जो परम्पराएँ ईश्वरकर्तृत्ववादी नहीं हैं ( यथा जैन, बौद्ध और सांख्य ) तथा जो परम्परा द्वैतवादी नहीं है (यथा केवलाद्वैत ) उनमें मोक्षके उपायके रूपमें ज्ञानमार्गका ही प्राधान्य हो सकता है। प्रपत्ति जैसी उत्कट कोटिकी भक्ति स्रष्टा और न्यायदाताको स्वीकार किये बिना सहज भावसे न तो हृदयमें उत्पन्न ही हो सकती है और न टिक ही सकती है। सर्वार्पण भक्ति तभी सम्भव हो सकती है जब साधक अपने विकास अथवा उद्धारके लिए किसीपर दृढ़ विश्वास रखता हो। स्वतंत्र ईश्वर न माननेवाले द्वैतवादी अथवा अद्वैतवादी इस प्रकारकी किसी अनुग्रह करनेवाली विभूतिको नहीं मानते, अतः उनमें ऐसी सर्वार्पणकी वृत्ति उदित ही नहीं हो सकती। इस प्रकारके