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________________ १२७ हों तब भी उनका वृत्तिके रूपमें आविर्भूत होने का सामर्थ्य सर्वथा नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार जले बीजमेंसे अंकुर नहीं निकलता उसी प्रकार दग्धबीज क्लेश अपना कार्य करने में असमर्थ होते हैं । इस पंचम अवस्थाका वर्णन भी पूर्णयोगदशाके वर्णन के समय योग, जैन और बौद्ध इन तीनों परम्पराओंने किया है । अध्यात्मसाधना क्लेशोंकी उपर्युक्त चार अवस्थाओं से मुक्त होकर पंचम अवस्था तक पहुँचना ही आध्यात्मिक साधनाका क्रमिक विकास है । इस प्रकार के विकासका तारतम्य ज्ञेयावरण तथा क्लेशावरणके बलाबल तथा साहजिक सद्गुणोंकी मात्रापर अवलम्बित रहता है । ऐसे विकास तारतम्यका निरूपण प्रत्येक आध्यात्मिक परम्पराने अपने-अपने ढंग से संक्षेप में अथवा विस्तारसे किया है। योगशास्त्र चार भूमिकाओं में इस तारतम्यका निरूपण करता है तो जैन- परम्परा चौदह भूमिकाओं में तथा बौद्ध परम्परा चार अथवा दस भूमिकाओंमें इस तारतम्यका विवेचन करती है । योगवासिष्ठ इस प्रकारकी चोदह भूमिकाओं का वर्णन करता है तो आजीवक परम्परा आठ भूमिकाओं का वर्णन करती है' । आध्यात्मिक साधकोंके क्षेत्रमें एक चर्चा बहुत प्रसिद्ध है । वह चर्चा ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग तथा कर्ममार्गसे सम्बन्ध रखती है । वैसे तो इस विचार तथा चर्चाका मूल अतिप्राचीन है, किन्तु ततः क्षीणचतुःकर्मा प्राप्तोऽथाख्यातसंयमम् । बीजबन्धन निर्मुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ।। x X X दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे नारोहति भवाङ्कुरः ॥ - तत्त्वार्थभाष्यगत अंतिम कारिकाएँ ५. १. योगशतक ( गुजराती ) परिशिष्ट ५ पृ० १२८ ܟ
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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