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अध्यात्मविचारणा ___ यही बात जैनपरम्परामें दूसरी परिभाषामें कही गई है। जैसे कि-(१) उदार अर्थात् भोगे जानेवाले उदीयमान कर्म । (२) विच्छिन्न अर्थात् विरोधी कर्मसे अभिभूत अथवा अनुदित अवस्थाप्राप्त कर्म । (३) तनुता अर्थात् क्षयोपशम अथवा उपशमदशाप्राप्त कर्म। (४) प्रसुप्त अर्थात् बद्ध होनेपर भी कालके अपरिपाकके कारण सत्तामें रहनेवाले यानी सत्तागत कर्म' ।
बौद्ध-परम्परा भी क्लेशोंकी इस प्रकारकी तारतम्ययुक्त अवस्थाओंका वर्णन करती है।
जब अपरोक्ष आत्म-प्रत्यय प्रकट होकर स्थिर होता है तब क्लेशोंकी उपर्युक्त चारों अवस्थाएँ नहीं रहती। उस समय एक पंचम अवस्था प्रकट होती है। उस अवस्थाका नाम है दग्धबीज अवस्था । इस अवस्थामें क्लेश. पुराने संस्काररूपमें विद्यमान
१. अत्राऽविद्यादयो मोहनीयकर्मण औदयिकभावविशेषाः। तेषां प्रसुप्तत्वं तज्जनककर्मणोऽबाधाकालापरिक्षयेण कर्मनिषेकाभावः । तनुत्वमुपशमः क्षयोपशमो वा । विच्छिन्नत्वं प्रतिपक्षप्रकृत्युदयादिनाऽन्तरितत्वम्। उदारत्वं चोदयावलिकाप्राप्तत्वम्, इत्यबसेयम् ।
-योगदर्शन २. ४ की यशोविजयजीकी वृत्ति २. सोतापत्ति श्रादि भूमिकाओं में दस संयोजना अथवा क्लेशोंके ह्रासका क्रमशः वर्णन किया जाता है, जो अभिधम्म ग्रन्थों में प्रसिद्ध है।
यस्मादनादिकालाभ्यासादत्यन्तोपारूढमूलत्वान्मलानां क्रमेणैव विपक्षवृद्धया अवहसतां क्षयो न तु सकृच्छ्रवणेन ।-तत्त्वसंग्रहपंजिका पृ० ८७५
३. तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् । -योगसूत्र ३. ५०
...एवं अस्य ततो विरज्यमानस्य यानि क्लेशबीजानि दग्धशालिबीजकल्पान्यप्रसवसमर्थानि तानि सह मनसा प्रत्यस्तं गच्छन्ति ।
–उपर्युक्त योगसूत्र ३. ५० का भाष्य