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चैतन्यकी ज्ञान, संकल्प आदि समस्त शक्तियाँ उन्मुक्त होकर अविसंवादी रूपमें काम करने लगती हैं । यही स्थिति योगीकी सिद्धि अथवा ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है । इस प्रज्ञामें वस्तुके यथार्थ स्वरूपके अतिरिक्त अन्य कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता; फलतः चित्त -चैतन्यमें व्युत्थान अथवा बहिर्मुखताके संस्कार पड़ने बन्द हो जाते हैं । '
अध्यात्मसाधना
ध्यानाभ्यास के बारेमें निम्नलिखित प्रश्न उपस्थित होते हैं । इन्हें समझे बिना साधक साध्य एवं साधनके विषयमें निःशंक नहीं हो सकता । वे प्रश्न ये हैं
(१) विद्या यदि एक प्रकारका ज्ञान है तो अध्यात्मविचार में उसका विषय कहाँ से कहाँ तक गिनना चाहिये, तथा विद्याका विषय कहाँ से प्रारम्भ होता है ? (२) अविद्या में ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिसके कारण उससे अस्थिरता, राग, द्वेष आदि क्लेश अनिवार्यतः उत्पन्न हों ? (३) विद्यामें ऐसा कौनसा तत्त्व है जिसका आविर्भाव होते ही अविद्या सहित बाक्नीके क्लेश सबीज नष्ट हो जाते हैं ? (४) जिस प्रकार पहले अविद्यमान विद्या कालान्तर में प्रकट होती है उसी प्रकार एक बार नष्ट हो जानेपर भी अविद्या पुनः कालान्तर में प्रकट नहीं होती - इस मान्यताका क्या आधार है ?
(१) जिस-जिसमें अहंत्वका भान होता है तथा इस भान के कारण ममत्वबुद्धि उत्पन्न होती है वह सब आत्मबुद्धिका विषय है, किन्तु जो वस्तुएँ मूर्त, परिमित एवं भोग्य होनेके कारण प्रयत्नसे प्राप्त की जाती हैं तथा प्रयत्नसे ही सुरक्षित रहती हैं वे सब अहंभावका
१. ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी | - योगसूत्र १. ४८ - ५०