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________________ १२० अध्यात्मविचारणा इसीका नाम है चित्तका वशीकरण' । इस प्रकारका वशीकरण सिद्ध होनेपर चित्त अपने भीतर गहरीसे गहरी सतहमें पड़े हुए वासनासंस्कारोंका यथावत् निरीक्षण कर सकता है और यह जान सकता है कि वे वासना-संस्कार जीवनके दृश्यपटपर किस किस प्रकार आविर्भूत होते हैं। इस ज्ञानसे उसे वासनाके बलाबलके तथा उन्हें ऊर्वीकृत करने के नियमोंका पता लगता है जिससे वह अपना सम्पूर्ण बल ऊर्वीकरणकी प्रक्रियामें उत्साहपूर्वक लगा देता है। चित्त जब शक्तियोंके ऊर्वीकरणकी इस प्रक्रियामें तल्लीन होता है तब उसे तुरन्त ही समझमें आ जाता है कि आत्मौपम्य अथवा अभेद दर्शनसे होनेवाले आनन्दका रहस्य क्या है। उसे तुरन्त ही पता लग जाता है कि मूर्त पदार्थ तथा उनसे सम्बद्ध कीर्ति, सत्ता आदि भावोंकी अभिलाषा किसी भी तरह सन्तुष्ट नहीं की जा सकती; उलटी सन्तुष्ट करनेपर वह अधिकाधिक तीव्र बनती जाती है, और यही तीव्रता पुनः प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होनेपर निर्वेद तथा अरुचि उत्पन्न करनेवाली बनती है। आत्मौ. पम्य तथा अभेददृष्टिका मार्ग इससे विपरीत है। जब योगी प्राणीमात्र में अपने जैसे ही स्पन्दमान चैतन्यकी दृढ़ प्रतीति करता है तब उसके अहन्त्व-ममत्वका केन्द्र एकमात्र चैतन्य ही रहता है । चैतन्य एक ऐसी वस्तु है जिसमें किसीकी प्रतिस्पर्धाका सम्भव नहीं और न परिमित एवं मूर्त भावोंसे उत्पन्न होनेवाले आघातप्रत्याघातोंका भी सम्भव । अतएव आगे बढ़ते बढ़ते जब साधककी अहन्त्व-ममत्व बुद्धि चेतनमात्रमें स्थिर होती है तब अन्य वस्तुओंमें पहलेसे चली आनेवाली अहन्त्वबुद्धि तथा तन्मूलक ममत्वका अनायास ही नाश हो जाता है। ऐसा होते ही चित्त और १. परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः- योगसूत्र १. ४०
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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