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अध्यात्मसाधना
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मैत्रीभावका सेवन करना चाहिये । मैत्रीभाव सेवन करनेकी लम्बी प्रक्रियाका एवं उसमें उपस्थित होनेवाले चित्तके आघातोंका प्रतीकार किस प्रकार करना चाहिये इत्यादि बातोंका विस्तृत एवं दृष्टान्तपूर्वक वर्णन करने के बाद अन्त में मैत्रीभावना सिद्ध हुई कि नहीं यह जाननेकी कसौटीके तौरपर बुद्धघोषने जो बात कही है वह ध्यान देने योग्य है । वह कहता है कि प्रिय, मध्यस्थ तथा वैरी ये तीन और साधक स्वयं इस प्रकार चारों एक स्थानपर बैठे हों। इतने में कोई हत्यारा आकर उनमेंसे एककी बलिके लिए याचना करे तो मैत्री-सिद्ध-साधकको क्या सोचना चाहिये ? इस प्रकारका साधक यह नहीं सोचे कि अमुक किसी एकको हत्यारा ले जाय । वह खुद उसे ही पकड़कर ले जाय ऐसा भी न सोचे, क्योंकि ऐसा सोचनेपर मैत्रीविरोधी पक्षपात सिद्ध होता
। अतः 'इन चारोंमें से कोई भी हत्यारे को देने योग्य नहीं है? ऐसा वह सोचे तभी उसका चित्त चारोंके विषय में सम तथा मैत्रीभावना वाला है ऐसा समझना चाहिये ।
चित्त तथा चेतन तत्त्व इतना अधिक सूक्ष्म और अमूर्त हैं कि कोई भी ध्यानाभ्यासी इन्द्रियानुगमन करने में अभ्यस्त बने हुए बहिर्मुख चित्तको सरलतापूर्वक अन्तर्मुख करके उसे स्वयं अपने स्वरूपका अथवा चेतनके स्वरूपका स्थिरतापूर्वक विचार करनेवाला नहीं बना सकता । इसीलिए ध्यानाभ्यास में चित्तके वशीकरण की प्रक्रियाका समावेश किया गया है । इस प्रक्रियाका अर्थ है धीरे-धीरे स्थूलसे सूक्ष्मका तथा सूक्ष्म से सूक्ष्मतरका स्थिरतापूर्वक चिन्तन करने का अभ्यास । ऐसा करते-करते चित्त इतना अधिक बल प्राप्त कर लेता है कि वह परमाणुके समान सूक्ष्मतम पदार्थका तथा आकाशके समान अतिमहान् तथा अमूर्त पदार्थका इच्छानुसार एवं सुखपूर्वक स्थिरतासे चिन्तन कर सकता है ।