________________
११८
अध्यात्मविचारणा वैसी भावना नहीं करनी चाहिये । इस कथनका स्पष्टीकरण करते हुए बुद्धघोषने लिखा है कि अप्रियको प्रियके स्थानमें स्थापित करनेसे चित्तमें पहलेपहल ग्लानिका अनुभव होता है। इसी प्रकार अतिप्रिय सहायक व्यक्तिको मध्यस्थस्थानमें रखनेसे भी चित्तमें ग्लानिका अनुभव होता है, क्योंकि वैसे अतिप्रिय सहायकका थोड़ासा भी दुःख देखकर चित्त द्रवित हो जाता है । मध्यस्थको प्रारम्भमें उच्च स्थानपर अथवा प्रिय स्थानपर रखनेसे चित्तमें खेदका अनुभव होता है तथा वैरीसे मैत्रीकी शुरुआत करनेपर वैरस्मरणके कारण क्रोध उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पुरुषको स्त्रीसे और स्त्रीको पुरुषसे मैत्रीभावनाका प्रारम्भ नहीं करना अन्यथा वैसी मैत्रीभावना करनेसे उलटा राग उत्पन्न होता है और पतन होता है। इस बातको स्पष्ट करने के लिए बुद्धघोषने एक रोचक दृष्टान्त दिया है। किसी मंत्रीपुत्रने एक स्थविरसे पूछा कि मुझे मैत्रीभावना किस विषयसे प्रारम्भ करनी चाहिये ? स्थविरने उत्तर दिया कि प्रिय विषयसे । प्रश्नकर्ताको उसकी पत्नी ही अधिक प्यारी थी, अतः उसने उसीमें मैत्रीभावना प्रारम्भ की। उसने पत्नीमें मैत्रीभावना करते-करते सारी रात कामोन्मादका अनुभव किया। इससे स्पष्ट है कि किसी भी साधकको विजातीय प्रिय व्यक्तिमें बद्ध होकर मैत्रीसेवनका प्रयत्न नहीं करना चाहिये । मृत व्यक्तिमें की जानेवाली मैत्री तो कभी सिद्ध होती ही नहीं।
बुद्धघोषने यह भी स्पष्ट किया है कि सर्वप्रथम 'मैं सुखी होऊँ, कभी भी दुःखी न होऊँ, ऐसी भावना करनी चाहिये। इस भावनाकी दृढ़ताके बाद मैत्रीभावमूलक समस्त प्राणियोंके सुखकी अभिलाषा करनी चाहिये। साधकको इसीसे सन्तुष्ट न रहकर अप्रिय, अतिप्रिय सहायक तथा वैरी व्यक्ति इस प्रकार सबके प्रति