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________________ अध्यात्मसाधना योगशास्त्रमें कहा गया है कि दुःखी प्राणीके प्रति उसका दुःख दूर करनेकी वृत्ति रखनी चाहिये । यह बात तत्त्वार्थसूत्र और विशुद्धिमार्गमें भी समान रूपसे कही गई है, किन्तु मैत्रीभावनाविषयक कथनमें कुछ भिन्नता दिखाई देती है। योगशास्त्र सुखी प्राणियोंमें मैत्रीभाव रखने के लिए कहता है जिससे उनके प्रति ईर्ष्याभाव पैदा न हो, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र कहता है कि केवल सुखी ही नहीं, समस्त प्राणीसृष्टिके प्रति मैत्रीभाव रखना चाहिये । चारों भावनाओंकी भित्ति है आत्मौपम्य अथवा अभेददृष्टि । ऐसी दृष्टि प्राणीमात्रके प्रति मैत्रीभाव रखनेसे ही बन सकती है। इस प्रकारको मैत्रीभावनासे ही दुःखियोंका दुःख दूर करनेकी करुणावृत्ति, गुणाधिकके प्रति प्रमोदवृत्ति तथा बिलकुल जड़ सरीखे अपात्रके प्रति माध्यस्थ्य अथवा तटस्थवृत्ति सम्भव हो सकती है। परन्तु बुद्धघोषने इन चार भावनाओं अथवा ब्रह्मविहारके अभ्यासक्रमका अधिक गहराईसे विचार किया है। उसने लिखा है कि प्राथमिक योगीको सर्वप्रथम एकान्त स्थानमें अनुकूल आसनपर बैठकर चित्तगत मलोंकी हीनता तथा मलशुद्धिकी उत्तमताका विचार करना चाहिये, जिससे यह विश्वास हो कि मलनिवारण करने योग्य है तथा मलशुद्धि ही सिद्ध करने योग्य है। इतना विश्वास पक्का होनेपर योगीको सर्वप्रथम मैत्रीभावनाका सेवन करना चाहिये। इसका भी क्रम है और वह यों है। योगीको अप्रियके प्रति, अतिप्रिय सहायकके प्रति, मध्यस्थके प्रति तथा शत्रुके प्रति मैत्रीभावना रखनेकी शुरुआत नहीं करनी चाहिये। मृत व्यक्तिके विषयमें तो इस प्रकारकी भावनाकी आवश्यकता ही नहीं रहती। विजातीय विषयक मैत्रीभावनाका प्रारम्भ करना हो तो केवल किसी एक व्यक्तिमें सीमित होकर
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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