SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ अध्यात्मविचारणा और प्रज्ञाकी तथा समाधि और वीर्यकी समता अधिक कामकी है; क्योंकि प्रज्ञाविहीन श्रद्धा मूढ-सी होनेसे उसका अपव्यय होता है, जब कि श्रद्धारहित प्रज्ञा कुतर्कवाद अथवा धूर्ततामें परिणत होती है। इसी प्रकार वीर्यकी मन्दता और समाधिकी सबलता होनेपर जड़ता बढ़ती है तथा समाधिकी अपेक्षा वीर्यकी सबलता होनेपर निरर्थक उपद्रव बढ़ता है। इसलिए इन सब अंगोंको इस प्रकार समुचित करना चाहिये कि उनकी सहायतासे अर्पणासमाधिमें आगे बढ़ा जाय तथा किसी तरहकी कमीका पोषण न हो। ___ ध्यानाभ्यास करनेकी इच्छा रखनेवाले साधकको ध्यान में उपस्थित होनेवाले विक्षेप आदि अन्तरायोंका निवारण करने के लिए योग्यतानुसार किसी एक स्थूल अथवा सूक्ष्म तत्त्वमें अपने चित्तको स्थिर करनेका अभ्यास करना पड़ता है । इस प्रकारका अभ्यास तभी सफल होता है जब चित्त निर्मल और प्रसन्न हो । ऐसी निर्मलता और प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए साधकको चित्तकी मलिनताके निवारणार्थ मैत्री आदि भावनाएँ पुष्ट करनी पड़ती हैं। ऐसी चार भावनाएँ योगशास्त्रमें हैं' तथा तत्त्वार्थसूत्र और विशुद्धिमार्गमें भी ये चार भावनाएँ हैं, परन्तु योगशास्त्रकी अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्रसम्मत इनका विषयविभाग कुछ अधिक संगत प्रतीत होता है । विशुद्धिमार्गमें तो इन भावनाओंकी चर्चा इतनी अधिक बुद्धिग्राह्य, रोचक तथा विस्तृत है कि मानो वह भावना-परम्पराका अनुभवसिद्ध विकास ही हो । १. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् । -योगसूत्र १.३३ २. मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु । -तत्त्वार्थसूत्र ७.६ ३. विसुद्धिमग्गमें तो समग्र ६ वा ब्रह्मविहारनिद्देस देखिये ।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy