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________________ १२२ अध्यात्म विचारणा विषय होनेपर भी अविद्याका विषय हैं । जो वस्तु प्राप्त नहीं है, जिसे प्राप्त करने अथवा सुरक्षित रखने के लिए किसी भी प्रकारका बाह्य प्रयत्न नहीं करना पड़ता, जो ज्ञानमात्रसे ही सिद्ध है वह विद्याका विषय है । इस व्याख्या के अनुसार शरीर, प्राण, मन, सत्ता, यश, सम्पत्ति, पुत्र आदि सब कुछ अविद्या के विषय में समाविष्ट है, क्योंकि यह सब प्रयत्नसे ही प्राप्त करना और प्रयत्न से ही सुरक्षित रखना पड़ता है । इन समस्त मूर्त भावों से तथा तन्मूलक अन्य भावोंसे परे जो चेतन तत्त्व है वह विद्याका विषय है, क्योंकि किसीको उसे प्रयत्न से पैदा करनेकी, प्राप्त करनेकी अथवा सुरक्षित रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती; केवल उसे पहचानने की वश्यकता होती है । (२) अहन्त्वकी अपरिमित सहजवृत्ति परिमित भावों में सन्तुष्ट नहीं होती । यही विद्याका विद्यापन है । इसके कारण जीव अनेक नये-नये पदार्थ प्राप्त करने, प्राप्त पदार्थों को सुरक्षित रखने तथा उनका परिमाण बढ़ाने की इच्छा करता है और इसकी पूर्ति के लिए तड़फता रहता है । बाह्य सामग्री प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने में अनिवार्यतः प्रतिस्पर्धा तथा हिस्सेदारी के विघ्न उपस्थित होनेपर उसकी रागवृत्तिको आघात लगता है । फलतः वह द्वेषभाव में परिणत हो जाती है तथा अभिनिवेशसे मुक्ति नहीं मिलती । यही विद्याका इतर क्लेशोंके प्रति अनिवार्य सम्बन्ध अर्थात् क्षेत्रत्व है । (३) अपरिमितत्वकी वृत्ति जब सदा सन्निहित तथा केवल ज्ञेयरूप अपरिमित चेतनतत्त्व में आकर ठहर जाती है तब उसके लिए अन्य कुछ भी प्राप्तव्य शेष नहीं रहता, जो है उसके नशा भी भय नहीं रहता तथा उसमें हिस्सेदारी अथवा प्रतिस्पर्धा की स्थिति भी उत्पन्न नहीं होती । इस प्रकार किसी भाँतिके
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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