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________________ ११४ अध्यात्मविचारणा अर्थ ज़रा सूक्ष्म दृष्टिसे समझना ठीक होगा। साधक बाह्य भोग्य आकर्षक वस्तुओंमें दोष देखने के बजाय उस वस्तुके प्रति आकर्षित होनेवाले अपने चित्तमें क्लेश-दोषोंका यथावत् दर्शनचिन्तन करे तो उससे कुछ स्थिर वैराग्य उत्पन्न होता है। जिस समय चित्त किसी सुन्दर वस्तुके प्रति ललचा जाय उस समय साधक उस वस्तुमें असुन्दरताकी भावना लानेके बजाय अपने चित्तमें उत्पन्न होनेवाले राग या भोगवासनाका निरीक्षण करे तथा इस वासनाके निमित्तसे जीवनमें अनुभवमें आनेवाले तरह-तरह के आघात-प्रत्याघातोंका चिन्तन करे तो भोगवासना अवश्य निर्बल हो सकती है। इसी प्रकार अनिष्ट अथवा द्वेष्य वस्तुके प्रति अप्रीति या रोष उत्पन्न हो उस समय चित्तमें उत्पन्न होनेवाली द्वेषवृत्तिके परिणामस्वरूप जीवन में आनेवाली कटुताका विचार करनेसे जो वैराग्य उत्पन्न होगा वह स्थिर रह सकेगा। इस प्रकारके अपरवैराग्यकी अपेक्षा भी परवैराग्य अधिक उत्कृष्ट कोटिका है । परवैराग्य दोषदर्शनसे नहीं, अपितु स्वरूपदर्शनसे उत्पन्न होता है । चित्त बाह्य विषयोंमें निस्सारता आदि दोष देखे अथवा अपनी राग-द्वेष आदि वृत्तियोंका जीवनपर पड़नेवाला बुरा असर देखे इसकी अपेक्षा यदि वह अपने शुद्ध सात्त्विक स्वरूप तथा चेतनाके सहभू निर्मल स्वरूपका अथवा उदात्त आदर्शका विचार करे तो उससे जो वैराग्य उत्पन्न होता है वह सच्चा एवं सात्त्विक बैराग्य होता है क्योंकि इस प्रकारके वैराग्यमें चित्तको चतनमात्रमें आत्मौपम्य अथवा अभेदका प्रत्यक्षदर्शन होता है और देह, प्राण, मन आदि मूर्त एवं परिमित आयतनोंमें तथा रूप, सत्ता, धन आदिमें बद्ध रखनेवाले आत्मबुद्धिरूप अज्ञानका पर्दा दूर हो जाता है और ऊपरी सतहपर अनुभवमें आनेवाले सुखकी अपेक्षा किसी अपूर्व व स्थिर आनन्दकी प्रतीति होने लगती
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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