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अध्यात्मसाधना
११३ आवश्यकता बताई गई है। योगशास्त्र पर और अपर दो प्रकारके वैराग्यका निरूपण करता है। इनमें से अपर वैराग्य स्थूल तथा प्रारम्भिक है। यह सम्प्रज्ञात समाधिके लिए उपयोगी है, किन्तु उससे असम्प्रज्ञात समाधि सिद्ध नहीं होती। असम्प्रज्ञात समाधिके लिए परवैराग्य आवश्यक है।
अनुभूत तथा श्रुत भौतिक पदार्थों के आकर्षणसे दूर रहना अपरवैराग्य है। आकर्षित करनेवाले भोग्य पदार्थों में अनित्यता अथवा असारताकी दोषबुद्धि उत्पन्न करनेसे उस ओरके आकर्षण में कमी हो सकती है इस विचारसे योगशास्त्र, तत्त्वार्थसूत्र' तथा विशुद्धिमागमें अपरवैराग्यका भिन्न-भिन्न रीतिले स्वरूप बताया गया है। विचार करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि भोग्य विषयोंके दोषदर्शनसे उत्पन्न होनेवाला वैराग्य पुनः भोगवासना प्रगट होते ही क्षणमात्रमें हवा हो जाता है। इसलिए उपाध्याय यशोविजयजीने अपरवैराग्यको दोषदर्शनजनित कहा है । इसका १. दृष्टानुअविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ।। वितर्कविचारानन्दास्मिताऽनुगमात् सम्प्रज्ञातः । विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ।
-योगदर्शन १. १५-१८ और सूत्रों का व्यासभाष्य । २. जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र ७.७ और भाष्य आदि टीकाएँ। ३. विसुद्धिमग्ग ६.८१ (पृ. १२६ ) से आगे।
४. विषयदोषजनितमापातधर्मसंन्यासलक्षणं प्रथमम् , सतत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन जनितं द्वितीयापूर्वकरणभावि तात्त्विकधर्मसंन्यासलक्षणं द्वितीयं वैराग्यम् , यत्र दायोपशमिका धर्मा अपि क्षीयन्ते क्षायिकाश्चोत्पद्यन्ते इत्यस्माकं सिद्धातः।
-योगदर्शन अ० १ सूत्र १२ से २६ की यशोविजयजीको वृत्ति ।