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________________ ११२ अध्यात्मविचारखा स्थानपर तत्त्वार्थसूत्र में सयोगि-केवलीका वर्णन है। असम्प्रज्ञात योगकी चरम अवस्थाके समय होनेवाला सर्ववृत्तिसह चित्तका विलय योगकी परिपूर्ण अवस्था कहलाता है । तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार सयोगी अवस्थाका अन्त होनेपर जो सम्पूर्ण योगनिरोध होता है वही साधना-कालकी अन्तिम स्थिति है'। विशुद्धिमार्गमें योग एवं संवरके बजाय समाधि पद है। उसका अर्थ करते हुए बुद्धघोष कहता है कि कुशल चित्तकी एकाग्रता ही समाधि है । उपचार-समाधि समाधिकी प्रारम्भिक अवस्था है। जिस प्रकार छोटा बालक अधिक समय तक खड़ा नहीं रह सकता उसी प्रकार यह प्रारम्भिक समाधि अधिक स्थिर नहीं होती। अभ्याससे स्थिर होनेपर यह अर्पणा-समाधि कहलाती है । यही अर्पणा-समाधि योगशास्त्रमें वर्णित सम्प्रज्ञात योगकी चार भूमिकाओंमें समाविष्ट होती है। किसी एक विषयमें चित्त स्थिर होकर तदाकार बनता है तब अर्पणा होती है। यही स्थिति योगशास्त्रमें समापत्ति पदसे निर्दिष्ट है। स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर . इस प्रकार उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्म वस्तुमें चित्त एकाग्र होकर जब स्थिर बनता है तब अनुक्रमसे होनेवाली अवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचाररूप चार समापत्तिरूप संप्रज्ञात भूमिकाओंका वर्णन योगशास्त्र में हैं। साधकको समाधिके लिए वैराग्यका अभ्यास करना पड़ता है। योगशास्त्र, तत्त्वार्थसूत्र तथा विशुद्धिमार्ग तीनोंमें वैराग्यकी १. देखिये तत्त्वार्थसूत्र सभाष्य दशम अध्याय । २. कुसलचित्तेकग्गता समाधि ।-विसुद्धिमग्ग ३.१ ३. विसुद्धिमग्ग ४. ३२ से आगे । ४. योगदर्शन १. १७
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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