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अध्यात्मसाधना
मन सुस्थ एवं प्रसन्न रह सके ऐसे सूक्ष्मसे महत् तकके किसी भी एक विषयमें उसे स्थिर करने तथा तद्विषयक विचार करनेका ध्यानाभ्यास । तत्त्वार्थसूत्रमें संवरके अंगके रूपमें गुप्ति, समिति. धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र तथा तपका उल्लेख है। ध्यान तपका एक महत्त्वपूर्ण भाग-अंग माना गया है । मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षाको भावना एवं वैराग्य का भी तत्त्वार्थसूत्रमें संवरके उपायोंके रूपमें निर्देश है।
क्रियायोग तथा ध्यानयोगके अभ्याससे अविद्याका संस्कार दूर होते ही प्रकृति-पुरुषके भेदका प्रसंख्यान अर्थात् अपरोक्ष ज्ञान आविर्भूत होता है तथा अविद्याका मूल नष्ट होते ही तन्मूलक इतर क्लेश भी क्षीण हो जाते हैं। यह हुई योगशास्त्रकी वर्णनशैली । तत्त्वार्थसूत्र इसी वस्तुका अन्य शब्दोंमें वर्णन करता है। उसमें बताया गया है कि चारित्र और शुक्ल ध्यानसे मोहनीय कर्म, जो कि पाँच क्लेशरूप है, क्षीण होता है तथा उसके नष्ट होते ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । केवलज्ञान आत्माका सम्पूर्ण और शुद्ध अपरोक्ष ज्ञान है।
विवेकख्यातिसम्पन्न असम्प्रज्ञात योगी अर्थात् जीवन्मुक्तके
१. तत्त्वार्थसूत्र ६.-३ २. तत्त्वार्थसूत्र ६. २० ३ तत्त्वार्थसूत्र ७.६ ४. तत्त्वार्थसूत्र ७. ७ ५. योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदाप्तिराविवेकख्यातेः।
.. -योगदर्शन २.२८ ६. तत्त्वार्थसूत्र ६ २६, ३०, ५०; १०. १ ७. योगदर्शन १. १८