________________
१०६
श्रध्यात्मविचारणा
अनियार्य रूपसे पाँचों यमोंका यथाशक्ति पालन करना पड़ता है, जब कि नियमके विषय में एकान्तरूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता । कोई साधक तपःप्रधान होता है, कोई स्वाध्याय पर विशेष भार देता है तो कोई ईश्वर - प्रणिधान पर विशेष जोर देता है । जिसकी जिसमें अधिक रुचि हो वह उस नियमका विशेष रूपसे पालन करता है । नियमका एकमात्र उपयोग मनको समाधिकी ओर मोड़ने तथा क्लेशोंको दुर्बल बनाने के लिए है । उपनिषद्, गीता तथा मनुस्मृति में तप व स्वाध्याय आदि नियमोंपर भार दिया गया है ' । बौद्धपरम्परामें भी घुतांगके रूपमें तपका समावेश किया गया है । निर्ग्रन्थ जैनपरम्परा तो तपस्वी - परम्परा ही समझी जाती है। स्वाध्यायको भी प्रत्येक परम्पराने समुचित स्थान
*
१. स तपोऽतप्यत । तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राणि ।
यज्ञेन दानेन तपसा |
तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
श्रद्धया परया तप्तं तपः ।
- बृहदा० १. २. ६
- बृहदा० ३. ८. १०.
- बृहदा० ४. ४. २२ — तैत्तिरीय १.६.१ गीता १७.
१७
ज्ञान्त्या शुद्धयन्ति विद्वांसो दानेनाऽकार्यकारिणः ।
प्रच्छन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ॥ – मनु०५. १०६ श्रद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मनः सत्येन शुद्धयति ।
विद्यातपोभ्यां 'भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति ॥ - मनु० ५. १०८ तपश्चरणैश्चोमैः साधयन्तीह तत्पदम् ॥ - मनुस्मृति ६, ७५
तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम् ।
तपसा किल्विषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ - मनुस्मृति १२.१०४ इनके अतिरिक्त अध्याय ११ श्लोक २३३ - २४७ में भी तपके महत्त्व और प्रकारोंका वर्णन है ।
२. विसुद्धिमग्ग : धुतंगनिद्देसो पृ० ४०